Monday 26 September 2016

अमजद साबरी और आज रंग है री (अमीर खुसरो)


अमजद साबरी (तस्वीर - गूगल से) 
"आज रंग है, ऐ माँ रंग है री..मेरे महबूब के घर रंग है री,
रैनी चढ़ी रसूल की. ."

गाने को रिपीट पर लगा दिया. . .  गिन कर नहीं बता सकती कि कितनी बार बजा होगा. . . "तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत, हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं". . ना किसी चोट का ख्याल, ना दर्द का . . 

हर बार पूरी शिद्दत से धड़कने तेज हुईं. . . "अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री।" . . . हर बार मन झूम के नाचा. . "जग उजियारो जगत उजियारो" ना अतीत का ख्याल, ना भविष्य का . . 

जैसे आप अकेले नहीं नाच रहे हैं. . साथ में पूरी कायनात झूम कर नाच रही है. . कोई जश्न चल रहा है. . चल रहा है . . बस चल रहा है. . मुस्कान रह रह कर चेहरे पर बिखर जा रही है. .  "अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में। अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री। आज रंग है ए माँ रंग है री।"

कोई मुस्कुरा रहा है मेरे भीतर. . कोई नाचते नाचते "खुसरो रैन सुहाग की, जो मैं जागी पी के संग, तन मोरा मन पिऊ का, दोनों एक ही रंग" गा रहा है . . रह रह कर मन लजा जा रहा है खुद से . .

Monday 5 September 2016

…because (for me) that was not a JOB !

St. Mary’s School – Another beautiful chapter!

When you forget to collect your salary after leaving your job, that moment becomes a perfect realization of how much you’ve loved your work!


Well, yes I am talking about myself working as a school teacher (particularly a subject teacher previous year, for a very short period). I went there, I taught and when I left the job after completing my session, I thought about the lovely kids, about the staff out there, about my daily routine, about my subject which I was teaching, thought about the lesson plans as well (which I hardly followed!), thought about everything else and forgot about my salary.

Slowly, when I adjusted myself back into my earlier routine I found myself somewhere thinking about those little monsters but still I hardly had any thought related with my salary of last two months. One fine day when I went to an ATM to get little cash, I found my account was showing 975 rupees to me. I had one bad expression on my face that, “my goodness! I am not left with even a thousand rupee note in my life!!” and then I thought about all the options from where I could get the money! This was the moment when I thought about my salary.

Friday 8 July 2016

एक और बसंत बीत चला


देख लिया बदलते मौसमों का एक पूरा चक्र,

अब झर जाना चाहिए पतझर का बहाना कर कि,

जिसमें (अपनी उम्र जी चुका?) पत्ता धीरे - से शाख छोड़ देता है,

जिस पर पीले पड़ जाने का फ़िज़ूल आरोप लगा देते हैं लोग..

पतझर का झरा हुआ पत्ता पीला नहीं होता..

कभी देखना उसे, वो सुनहला होता है..

एक उम्र जीने के बाद वो निखर जाता है..

तुम उसके सुनहलेपन को पीलापन कहकर गिरा देने का बहाना बना लेते हो...

वो पत्ता जो अपनी सारी नमी तुम्हारे नाम कर चुका..

तुम उसे सख्त और रुखा कह देते हो..

Tuesday 21 June 2016

कसम ली – बाई गॉड सीरियसली!

आजकल मेरी स्पीड पर स्पीड ब्रेकर लगा रहता है| यूँ भी ज्यादा तेज़ी से चलने की मुझे आदत नहीं| एक वजह यह भी है कि ज्यादा तेज़ी से चल ही नहीं पाती तो चलूंगी कैसे..! बहरहाल, मुझे वैसे भी ज्यादा ‘मदद’ की ज़रूरत नहीं पड़ती .. पर लोग ‘बाग़’ मदद करते रहते हैं समय - समय पर .. कभी - कभी मदद ले लेने में भी कोई बुराई नहीं है|

खैर, फिलहाल मसला ये है कि हाल फिलहाल में हम हॉस्पिटल से घर के लिए निकले| (‘हम’ यानी मैं, यहाँ एकवचन लगाने का मन नहीं है!) आम तौर पर ऑटो लेना आदत हो गई है| शुरुआत में कैब लेना होता था पर कैब कभी जंचा नहीं| इसलिए सिर्फ ऑटो का ऑप्शन बचा| जेब में देखा तो पता चला कि ऑटो के लायक पैसे नहीं हैं| सोचा अपना मेट्रो जिंदाबाद| चलने में लंगड़ाहट अभी बाकी है| सो धीरे - धीरे चलना शुरू किया|

मेट्रो तक चल कर जाना .. फिर सीढ़ियाँ ... उफ्फ .. साथ में एक जनाब बातचीत में थे.. हमने भी सोचा कि सफर में लोग मिलते रहें तो कारवां बनता है| हमने बनने दिया कारवां| फिर कुछ कदम पर एक और जनाब साथ हो लिए.. हमने स्टार वाली फीलिंग को झट से ले लिया| हम तीनों साथ में मेट्रो स्टेशन तक गए| मैं और साथ में दो लोग| अब सीढ़ियाँ उतरने की बारी थी|


Friday 18 March 2016

सुधीर भाई ‘ज़ी’ चौधरी - ऐसे कैसे बनेगा इण्डिया हैप्पी??

सुधीर भाई जी चौधरी ने आज दिनांक 17 मार्च 2016 को एक अद्भुत  एपिसोड प्रस्तुत किया | अब पेश है इसी महान कार्यक्रम आधारित हमारा – ‘चिन्ना वाला डीएनए’ |

इस कार्यक्रम में सुधीर भाई जी चौधरी साहब ने ‘World Happiness Index’ की ताज़ा रिपोर्ट के हवाले से खुशीपर एक लम्बा प्रवचन पेश किया | उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि भारत में लोगों के दुखी होने के पीछे कई वजहें शामिल हैं| आइए सबसे पहले उन वजहों में से कुछ अहम वजहों पर एक नज़र डालें

1) भारत में लोग पडोसी की खुशी से जलतेहैं|

2) भारत में लोगों को दूसरे की कार या उनके घर आया सामान देख कर ईर्ष्याहोती है|

3) भारत में लोगों को चारों तरफ सिवाए नकारात्मकताके कुछ नहीं दिखाई देता|

4) भारत में लोग दूसरों के प्रमोशन से भी खुद की तुलना कर दुःखीहो जाते हैं|

5) भारत में बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो नाखुश रहने की एक बड़ी साइकोलॉजिकलबीमारी से ग्रस्त हैं जिस कारण वे खुश होने से घबराते हैं|

6) ऐसा दुःख फैलाने का काम कुछ तो स्वभावग्रस्त है और कुछ लोग ऐसा माहौल बना रहे हैं ताकि दुःख की मात्रा में वृद्धि की जा सके|

7) इन दुःख फैलाने वालों में वो मीडियाके लोग भी शामिल हैं जो बात बात पर काली स्क्रीनकर खबर नहीं दिखाते|

Wednesday 10 February 2016

घोंचू का भेलेनटाईन डे उर्फ प्रेम उर्फ बसंत पंचमी का ऐतिहासिक दिन #2

(शेष से आगे)..... 

...‘कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ’ गीत उसे बहुत पसंद है पर उस गाने में जब नायक नाच-नाच कर कहता कि ‘सोचा है ये कि तुम्हें रास्ता भुलाएं, सुनी जगह पे कहीं छेड़े डराएं’ सुनते ही उसे इस गाने से घृणा होने लगती | ‘रास्ता भुलाएँ, छेड़े डराएं !!’ उसकी नज़र में इससे बड़ी बेशर्मी और कुछ नहीं ! उसके लिए प्रेम यानी कि 24 कैरेट शुद्ध सोना |

उलझन और बढती जा रही है | उसने कहीं से सुन लिया है कि हसीना के घर रिश्ते आ रहे हैं | शादी !! ये कैसे हो सकता है !! कोई अदना - सा आदमी जिसे प्रेम की ‘अपरिभाषित वाली परिभाषा’ तक मालूम हो वह हसीना से विवाह करेगा !! फिर वही ‘किस’ और ‘सेक्स’ ! उफ्फ ये कैसे हो सकता है ! वो ऐसा नहीं होने देगा | अब कुछ करना होगा |

कुछ करना होगा पर क्या ! उसे कुछ सूझ नहीं रहा |

कई महीने कई दिन गुज़र गए | उसने फ़रवरी महीने की विशिष्टता के बारे में भी सुना था | फ़रवरी के महीने में एक हफ्ता आता है जिसमें प्रेमी प्रेम का इज़हार किया करते हैं | पहला दिन यानी कन्या को पुष्प समर्पित करने का दिन | यूँ तो इस दिन लड़की भी लड़के को फूल देकर प्यार का इज़हार करती है | पर लड़की का इज़हार करना घोंचू को अच्छा नहीं लगा | घटिया पाश्चात्य व्यवहार!! कन्या से प्रेम किया जाता है | प्रेम के लिए निवेदन की अवधारणा बनी है | यह एक पुरुष आधारित कर्तव्य है | कन्या स्वयं ऐसा करे करे यह बात उसे जमी नहीं |

दूसरे दिन मीठा खिलाने की अवधारणा को भी घोंचू ने समझा | उसे फिर चिढ़ हुई कि बाज़ार व्यवस्था ने किस तरह मीठे के पर्याय चॉकलेट को बना कर इस पवित्र दिन को ‘चॉकलेट डे’ कह दिया | इसी तरह पूरे सप्ताह कुछ न कुछ चलता रहे और फिर 14 फ़रवरी को प्रेम का निवेदन | आहा ! सुन्दर ! घोंचू को इसमें कोई विचारधारात्मक आपत्ति नहीं लगी | सिवाय इसके विदेशीपन के!! घोंचू ने कई धर्मग्रंथ भी उलट पलट कर देखे ताकि वह सिद्ध कर सके कि ‘वेलेंटाइन डे’ की प्रेमपरक अवधारणा वस्तुतः भारत की देन है | इस काम में समय लग रहा है | अतः तय किया कि यह काम बाद में किया जाएगा | पहले उसे ‘स्वप्नप्रिया’ को उस ढोंगी आदमी से बचाना है जिसे प्रेम के बारे में कुछ नहीं पता पर जिसका विवाह उसकी स्वप्नप्रिया से तय होने वाला है|

Tuesday 9 February 2016

घोंचू का भेलेनटाईन डे उर्फ प्रेम उर्फ बसंत पंचमी का ऐतिहासिक दिन #1

घोंचू ने किशोरावस्था में ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ी थी| उसे रूमी का काव्य भी पसंद है | वह भावुक नहीं है | वह भावुकता की बौद्धिक स्वीकृति है | उसने किशोरावस्था में ही प्रण लिया था कि वह एक न एक दिन महान प्रेमी होगा | आज घोंचू युवा है | मतलब, युवा से थोड़ा आगे बढ़ गया है पर है युवा ही | दरअसल मामला ‘समझदारी’ का है | वो अपने हमउम्र लोगों से ज्यादा समझदार था इसलिए जब उसके दोस्त प्यार में थे उस समय घोंचू का मानना था कि वे सब ‘टटके इश्क’ में हैं | (टटका इश्क यानी कि चलताऊ इश्क) | इसी बीच उसकी उम्र थोड़ी - सी आगे खिसक गई पर उसे युवा राजनीतिज्ञ की तर्ज़ पर युवा ही माना जाएगा | बहरहाल, अब घोंचू प्रेम में है |

जी हाँ, प्रेम करता है वो हसीना से, सच्चा वाला | घोंचू अपनी कल्पना में उसे ‘स्वप्नप्रिया’ बुलाता है| यह नाम उसे प्रेम से और भी ज्यादा जोड़ देता है | मामला यह कि घोंचू हसीना से प्यार करता है|

बस यही है न दिक्कत !! जैसे ही कहा कि वो प्यार करता है वैसे ही आप समझने लगे की घोंचू के शरीर में हार्मोनल चेंज हो रहा है | यहीं तो धोखा खा गया इण्डिया | आप समझे नहीं ! दरअसल घोंचू इन सबसे बहुत ऊपर है | वो हार्मोनल चेंज से सर्वथा परे है | घोंचू को अगर हसीना पर सच्चा वाला प्यार न आया होता तो घोंचू पूरा जीवन सेक्स से परे रह कर साधना करता | ऐसा उसने कभी तय किया था | यह मजाक वाली बात नहीं है | यह बात उसने दोस्तों की महफ़िल में ताल ठोक के कई-कई बार कही है | पर हर बार वह चालाकी से हसीना का नाम छुपा लेता था | आप समझ रहे हैं न, उसके पास मौके की परख भी है |

उसने यह भी सोच कर रखा है कि जिस दिन वह हसीना से अपने प्रेम को जाहिर करेगा इस बात का ज़िक्र ज़रूर करेगा कि अगर वो उसे न दिखी होती तो वो उम्र भर घटिया इश्किया टाइप फ़िल्मी बात में नहीं पड़ता | खामख्वाह वाला ‘किस’ करके खुश होने वाला घटियापन उसे कतई बर्दाश्त नहीं|

Thursday 28 January 2016

The Gift of the Magi by O. Henry


PC - Google Picture Gallery
One dollar and eighty-seven cents. That was all. And sixty cents of it was in pennies. Pennies saved one and two at a time by bulldozing the grocer and the vegetable man and the butcher until one's cheeks burned with the silent imputation of parsimony that such close dealing implied. Three times Della counted it. One dollar and eighty-seven cents. And the next day would be Christmas.

 There was clearly nothing left to do but flop down on the shabby little couch and howl. So Della did it. Which instigates the moral reflection that life is made up of sobs, sniffles, and smiles, with sniffles predominating.

 While the mistress of the home is gradually subsiding from the first stage to the second, take a look at the home. A furnished flat at $8 per week. It did not exactly beggar description, but it certainly had that word on the look-out for the mendicancy squad.

In the vestibule below was a letter-box into which no letter would go, and an electric button from which no mortal finger could coax a ring. Also appertaining thereunto was a card bearing the name "Mr. James Dillingham Young."

The "Dillingham" had been flung to the breeze during a former period of prosperity when its possessor was being paid $30 per week. Now, when the income was shrunk to $20, the letters of "Dillingham" looked blurred, as though they were thinking seriously of contracting to a modest and unassuming D. But whenever Mr. James Dillingham Young came home and reached his flat above he was called "Jim" and greatly hugged by Mrs. James Dillingham Young, already introduced to you as Della. Which is all very good.

Saturday 23 January 2016

The Despair

'Soul-mate' Art piece (Artist - Unknown),  Photo - Preeti Tiwari

मुझे नहीं हासिल करना किसी का प्यार जीवन में,
प्यार हासिल करना कभी लक्ष्य नहीं हो सकता,
वह होता है,
मिलता है,
टाइम फ्रेम में उसे पाना नहीं होता..

भरपूर दोस्त,
भरपूर लम्हें,
भरपूर ज़िंदगी,
जिया,
भरपूर जिया,
पर खुद से हासिल क्या !

मेरे हासिल अलग थे,
मेरे हासिल अलग हैं,
बस बैठना है सुकून से अपने दोस्तों के साथ,
फिर धीरे से छेड़ना है उनमें से किसी को मुस्कुराते हुए,
फिर मजाक उड़ा कर तालियाँ बजा कर हँसना है,
फिर पड़ने वाली मार के डर से तेज़ी से उठ के भागना है,
और
फिर धीरे से भूल जाना है कि वो पल तब्दील हो गया है बचपन वाली मारम-पिट्टी के खेल में|

Sunday 17 January 2016

रंगमंच की दीवारें

मैं 2007 से लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि/एनएसडी) जाती रही हूँ. इसके पीछे वजह यह कभी नहीं रही कि मुझे भविष्य में अभिनय की दुनिया से जुड़ना था. यह भी नहीं कि मुझे नाटकों पर बड़े लेख लिखने थे या किसी बड़े विश्वविद्यालय के विभाग में नाटक विधा की महत्ता और उपयोगिता’ जैसे किसी विषय पर पीएचडी करनी थी. यह वह समय था जब मुझे इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि नाटक’ को पाठ्यपुस्तक के जरिए पढ़ा भी जाता है. हाँ, ‘अभिनय एक कला हैजिसे सीखा जाता है’ यह मुझे ज़रूर पता था. लेकिन इस बात का मेरे नाटक देखने से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था.

'मुझे नाटक देखना अच्छा लगता है.' बस इतनी-सी वजह! इतनी वजह पर्याप्त होती थी सत्तरह अठारह की उम्र में सलमान खान – शाहरुख खान की फिल्में देखने के बाद और अपने दोस्तों के बीच कूल’ बनने के बाद भी उस भीड़ से निकल कर एनएसडी तो कभी श्री राम सेन्टर के बाहर लाइन लगाने के लिए. नाटक मेरे लिए एक समान्तर दुनिया है. हाँ एक बात और कि फिल्मों के लिए दोस्तों का झुण्ड भले ही मिल जाता हो पर नाटक के लिए शायद कभी कोई इक्का - दुक्का तैयार होता था. मैंने दस में आठ दफे खुद को अकेला पाया. शिकायत बिल्कुल नहीं. अकेले घूमने से मैंने यूँ भी कभी परहेज़ नहीं किया. 

नाटकों को देखने के लिए, ‘पहले आयें-पहले पायें’ जैसी अवधारणा ने भी मुझे कभी नहीं रोका. नाटक की टिकट कतारों में मैंने खुद को हमेशा पाया. नाटक के सिलसिले में मैं कहीं ज्यादा भावुक हूँ. अपने साथ किसी को ले जाऊं और देख कर कोई कह दे कि, “बोरिंग था!” या फिर ये क्या दिखा दिया यार!” जैसे जवाब कल्पना में भी आहत कर जाते हैं. नाटकों को लगातार देखने ने नाटक की समझ पैदा की. मैंने देखा. कभी थोड़ा समझ आयाकभी वह भी नहीं. धीरे-धीरे समझ आने लगा. यह समझ मुझे किसी पाठ्यपुस्तक से नहीं मिली. अब भी वजह वही थी. 'नाटक देखना अच्छा लगता है'.

बापी बोस द्वारा निर्देशित 'मुक्ति' नाटक का एक दृश्य ( मुक्तिबोध के जीवन पर आधारित) फोटो - प्रीति तिवारी