एक खास जगह पर बैठ कर चाँद को देखना.. और फिर इस
तरह देखना कि उसके दिखने की दिशा को बदलते हुए देखना.. ‘धीरे - धीरे चल चाँद गगन
में’ जैसे गाने को गाना और फिर मुस्कुरा कर खुद से कहना कि गाना रोमांटिसिज़्म में
लिखा गया है.. चाँद धीरे ही चलता है.. चाँद का चलना पृथ्वी के चलने की तुलना में
कम है.. इसलिए चाँद पर इलज़ाम ठीक नहीं..! और फिर यह भी सोच लेना कि हर जगह ज्यादा दिमाग
लगाना भी अच्छा नहीं..! फिर ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिलें तो वीराने में
भी आ जाएगी बहार’ को ढूँढ कर निकालना और कई बार सुनना.. ‘आधा है चंद्रमा रात आधी,
रह ना जाए तेरी मेरी बात आधी’ को सुन कर खुश हो लेना.. और उसके बाद ‘चाँद फिर
निकला मगर तुम ना आए’ बजा कर रात के होने, गहराने और बीतने को महसूस करना.. ये कई
कई बार दोहराई जाने वाली गतिविधि है.. या कहूँ कि बहुत सारी गतिविधियों में से एक
है.. कुछ खास आदतों में शुमार.. ये कुछ उन खास आदतों में शुमार है जिन्हें बदलने
का ख्याल कभी आया ही नहीं.. वक्त धीरे धीरे कुछ आदतें डालता है.. और लेकिन फिर
बहुत चुपचाप उन्हें बदलने को मजबूर कर देता है..
तकरीबन एक से डेढ़ साल बाद घर लौटना मुक्कमल हुआ.. पिछले दिनों भी चाँद
वैसा ही लगा लेकिन हमारे दरम्यान कुछ ज़रा सा बदला हुआ था.. नहीं! चाँद नहीं.. शायद
हमारी बातचीत.. शायद फ़िल्मी अंदाज़ में बजने वाले वो शौकिया गाने.. शायद वो गानों
को क्रम से बजाने का उत्साह.. और चाँद से होने वाली बातचीत की लय.. उसकी और मेरी भाषा..
उसमें मिली हुई हँसी.. उस ‘ज़रा से’ बदलने में
जाने क्या क्या शामिल हो गया..!