Tuesday 25 April 2017

फुहार - पुरानी दिल्ली सीरीज

पुरानी दिल्ली के चक्कर (1)

पहले आपके लिए यह तय करना ज़रूरी है कि आप देसी आभास किसे मानते हैं? अक्सर चांदनी चौक घूमने गए लोग मेट्रो से निकल कर सुविधाजनक रास्ता पकड़ मैकडोनाल्ड, बीकानेरहाउस और हल्दीराम्’स में बैठ जाते हैं और लौट कर कहते हैं कि उन्होंने चांदनी चौक देखा
बड़ा ही कंजस्टेड है हाउ लो-क्लास!

अगर चांदनी चौक घूमना है तो पहले अपने पर्स और मोबाइल को अपने बैग में गहरे दबा दीजिए ताकि ‘साफ़’ ना हो जाए और फिर उतर जाईये भीड़ में.. चलने का हौसला रखिए क्योंकि हर जगह पलट कर सेल्फि खींचने का मौका यहाँ आसानी से नहीं मिलता.. फिर देखिये गली गली और मोहल्ला..

तस्वीर - शुभम गुप्ता पुरवार

यहाँ आज भी आँगन वाले घर हैं.. खिड़की आज भी वो मजबूत तख़्त वाली लकड़ियों से बनी हैं जिन्हें आज के बच्चे हाथ लगा कर खोलने में हांफ जाते हैं.. ‘खट खट खट’ कर लगने वाले ट्रिपल सिक्योरिटी वाले ताले यहीं मार्केट में तो बिकते हैं पर नज़र उठा के देखिये वहाँ किसी घर में ये ताले लगे हुए नहीं दिखेंगे। वहाँ आपको दिखेंगे बड़े किवाड़। आप सोच रहे होंगे कि अब दरवाजों को ‘किवाड़’ कौन बोलता है? दस पन्द्रह घरों के आगे से गुजरिये.. ये ‘किवाड़’ शब्द आपको सुनाई दे जाएगा।

हर गली से गुजरते हुए चाय के अड्डे मिलेंगे। उबलती हुई चाय की खुशबू जब आप महसूस करेंगे तो याद आएगी ढाई सौ रूपये वाली मॉल वाली चाय, कॉफी और यह भी याद आएगा कि कितना ठगा है दुनिया ने आपको !!

हर गली में दाखिल होने से पहले आसपास दिख रहे भाईबंधु से पूछिए कि यह गली कहाँ निकलती है ? तब आपको एह्साह होगा कि एक गली चावड़ी बाज़ार निकलती है तो एक गली बल्लीमारान से दरीबे तक ले जाती है, तो एक सीधा दरिया गंज के फाटक तक पहुँचा देती है । कोई जामा मस्जिद तो कोई चितली कब्र का रुख करती है । आज जहाँ आप धौला कुआं के फ्लाईओवर पर एक गलत टर्न लेते ही डेढ़ घंटे का नुकसान करवा लेते हैं वहाँ ये गलियाँ गलत रुख लेने पर भी कहीं ना कहीं से जोड़ कर आपको मंजिल तक पहुँचा देती हैं।
तस्वीर - एहतिशाम अली सिद्दीकी
..और आपने उन लड़कियों का ज़िक्र तो सुना होगा तो गोलगप्पे खाने के बाद पानी और सौंठ मांगने के लिए बदनाम कर दी गईं हैं, आप एक बार चांदनी चौक का रुख कीजिये.. यहाँ चटपटी कचौरी के साथ दही मांगते लड़कों की लाइन जब देखेंगे तो उन लड़कियों को और उन पर बनने वाले सोशल मीडिया टाइप जोक्स को भूल जाएंगे.. यहाँ लड़के अभी तक ‘डूड’ नहीं हुए हैं जिन्हें दही और सौंठ मांगने में शर्म आती है.. वे बेहिचक बोलते हैं, “यार और दे ना यार, हम लड़की नहीं हैं तो हमें नहीं देगा क्या..? देख कंजूसी मत करियो..” 

देखना है चांदनी चौक तो पैदल चलिए थोड़ा, कष्ट दीजिए खुद को, वरना इंतज़ार कीजिये किसी ‘दिल्ली 6’ टाइप फिल्म का जो दावा करे कि उसमें ‘रियल दिल्ली’ देखने को मिलेगी। ‘रियल दिल्ली’ कैसी है सोच कर मत जाइए! जाना है तो तुरन्त जाइये, इससे पहले कि वहाँ की ‘पाव-भाजी’ वाली रेडी पर भी ‘मोमोज’ बिकने लगें! जानते हैं ना, समय तेज़ी से बदल रहा है! 

Wednesday 19 April 2017

ऊँची तोर अटारी, मैंने पंख लिए कटवाए

एक खास जगह पर बैठ कर चाँद को देखना.. और फिर इस तरह देखना कि उसके दिखने की दिशा को बदलते हुए देखना.. ‘धीरे - धीरे चल चाँद गगन में’ जैसे गाने को गाना और फिर मुस्कुरा कर खुद से कहना कि गाना रोमांटिसिज़्म में लिखा गया है.. चाँद धीरे ही चलता है.. चाँद का चलना पृथ्वी के चलने की तुलना में कम है.. इसलिए चाँद पर इलज़ाम ठीक नहीं..!  और फिर यह भी सोच लेना कि हर जगह ज्यादा दिमाग लगाना भी अच्छा नहीं..! फिर ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिलें तो वीराने में भी आ जाएगी बहार’ को ढूँढ कर निकालना और कई बार सुनना.. ‘आधा है चंद्रमा रात आधी, रह ना जाए तेरी मेरी बात आधी’ को सुन कर खुश हो लेना.. और उसके बाद ‘चाँद फिर निकला मगर तुम ना आए’ बजा कर रात के होने, गहराने और बीतने को महसूस करना.. ये कई कई बार दोहराई जाने वाली गतिविधि है.. या कहूँ कि बहुत सारी गतिविधियों में से एक है.. कुछ खास आदतों में शुमार.. ये कुछ उन खास आदतों में शुमार है जिन्हें बदलने का ख्याल कभी आया ही नहीं.. वक्त धीरे धीरे कुछ आदतें डालता है.. और लेकिन फिर बहुत चुपचाप उन्हें बदलने को मजबूर कर देता है.. 


तकरीबन एक से डेढ़ साल बाद घर लौटना मुक्कमल हुआ.. पिछले दिनों भी चाँद वैसा ही लगा लेकिन हमारे दरम्यान कुछ ज़रा सा बदला हुआ था.. नहीं! चाँद नहीं.. शायद हमारी बातचीत.. शायद फ़िल्मी अंदाज़ में बजने वाले वो शौकिया गाने.. शायद वो गानों को क्रम से बजाने का उत्साह.. और चाँद से होने वाली बातचीत की लय.. उसकी और मेरी भाषा.. उसमें मिली हुई हँसी..  उस ‘ज़रा से’ बदलने में जाने क्या क्या शामिल हो गया..!