उसने सुना..
वह मेरे पास आया.. रुका.. फिर पूछा, “हुडा सिटी सेन्टर वाली (मेट्रो) कहाँ से
जाएगी..?”
मैंने कहा,
“यहीं से, या फिर इसी मेट्रो से चले जाइए, आगे जाकर एक स्टॉप पहले प्लेटफार्म पर
उतर जाइएगा.. ठीक वहीं अगली मेट्रो आएगी.. वही पहुँचा देगी हुडा सिटी सेन्टर..”
उसने रूककर
कहा.. “इतना कहाँ समझ में आता है मैडम!”
मैंने कहा, “यहीं रुके रहिये फिर, अगली मेट्रो का इंतज़ार कीजिये, अगली वाली जाएगी|”
वह कोने में
जाकर खड़ा हो गया.
तब तक
मेट्रो रवाना हो चुकी थी.
अगली मेट्रो का प्रतीक्षा समय 6 मिनट था.
"Meanwhile" (oil on canvas) - Achintya Malviya's work. |
अगली मेट्रो
वह मेट्रो होगी जिसकी उसे ज़रूरत है, यह जान कर वह निश्चिन्त हुआ.
अब वह चारों
तरफ आश्चर्य भाव से देख रहा था. वह चारों तरफ आश्चर्य से देखता रहा और मैं उसके
देखने को!! वह रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे इंसानों को देखता.. पूरी तरह.. ऊपर से
नीचे तक देखता.. किसी के फोन पर हाथ हिला-हिलाकर बात करने को देखता.. किसी के फोन
ऊपर उठा कर खींचीं जा रही सेल्फी को देखता.. किसी को प्लेटफार्म पर दिख रहे शीशे
में अपने बालों को ठीक करते देखता.. कोने में खड़ी अपने “गोल्डन झुमकों” पर इतराती
लड़की को उसने पूरी नज़र भर कर देखा..
प्लेटफार्म
पर आवाज़ फिर खनक गई..
“हुडा सिटी
सेन्टर की ओर जाने वाली मेट्रो प्लेटफार्म नम्बर एक पर आने वाली है”.
संभावित भीड़
का अनुमान लगा कर वह आगे चलने लगा.
मेट्रो को
तेज़ी से आकर रुकते हुए जब वह देख रहा था तब उसकी आँखें “गोल्डन झुमकों” वाली लड़की
को देखने से भी ज्यादा आश्चर्य से भरीं थीं..
उसने झटके-से
खुलते हुए दरवाजों को देखा और भीड़ की हल्की धक्का-मुक्की के बीच उसने मेट्रो में
कदम रखा. वह भीतर के दरवाज़े के पास जाकर सहारा लेकर खड़ा होना चाहता था.. पर वहाँ
पहुँच कर वापस लौट गया.. उसे लगा जैसे वह दरवाज़ा बिना किसी सूचना के खुल जाएगा..
वह टेक लगाना चाहता था.. वह देर तक खड़ा रहा.. उसने देखा कि कुछ लोग हर स्टेशन पर
उतरते हैं.. और कुछ चढ़ जाते हैं.. इसमें क्या नई बात थी भला!! पर जिस बात ने उसे
हैरान किया वह यह कि खड़े लोगों में से कुछ खाली हुई सीटों पर बैठ जाते हैं.. बहुत
देर के बाद उसे समझ में आया कि मेट्रो रेल में रेलगाड़ी की तरह सीट पर बैठने की बुकिंग
पहले से नहीं हुआ करती.. वह चली आ रही अपनी मूर्खता पर मुस्कुराया.. उस मुस्कराहट
में अब होशियारी भी झलक रही थी.. उसके चेहरे से ज़ाहिर था कि वह सीट खाली होते ही
बैठने का मन बना चुका था.. पर जैसे ही सीट खाली होती और वह सकपकाकर आगे बढ़ता तब तक
सीट पर कोई बैठ चुका होता.. लगातार यह सिलसिला चलता रहा.. इस बार उसने साहस किया..
सीट खाली हुई.. वह लपका और बैठ गया.. वह सीट ‘महिला यात्रियों के लिए’ आरक्षित थी,
इस बात का उसे कोई ज्ञान न था.. उसके चेहरे पर विजय की मुस्कान बिखरी हुई थी.. आखिर
हौसले का काम किया था उसने..
अगले ही
स्टेशन से एक सुन्दर शहरी कन्या ने मेट्रो में दाखिल होते ही उसे टारगेट किया और
मुस्कुरा कर कहा कि, “सीट दे दीजिए..” वह हैरान था.. वह भी तो ऐसे सीट मांग सकता
था.. यह ख्याल उसे क्यों नहीं आया.. सोचकर अपनी मूर्खता पर विचार करने लगा.. कन्या
ने दोहराया.. “हेलो मिस्टर सीट!” वह खड़ा हो गया.. उसे लगा कि यह तो उसे मालूम ही न
था कि लेन-देन व्यवहार ऐसे भी होता है.. सीट के ऊपर लिखे बोर्ड पर उसकी नज़र अब भी
नहीं गई.. वह कोने में चौकन्ना खड़ा हुआ एक बार फिर सीट लपक लेने की नई कोशिश के
लिए..
दरवाज़े से
सटी दो में से एक सीट खाली हुई.. वह इस बार नए उत्साह से आगे बढ़ा.. और सीट हासिल
कर अपनी वही मुस्कान फिर दोहराई.. दो ही स्टेशन गुज़रे थे.. तकरीबन पैंतालीस साल के
आसपास का व्यक्ति चढा.. शायद सफ़ेद बालों को हथियार बना कर वह बड़े-बूढों व
बुजुर्गों की सूची में आने का लाईसेंस रखता था.. इस बड़े–बूढ़े व्यक्ति ने उसे घूर
कर देखा और कहा, “सीट!”, वह खड़ा नहीं हुआ बल्कि सीट पर बैठे हुए ही वह भौंहें
सिकोड़ कर उसे देखने लगा.. उसने सीट मांगने का जो पुराना रूप देखा था यह तो उससे
अलग था.. “अगर सीट मांगते समय मुस्कुरा कर कहना नियम है तो यह घूर क्यों कह रहा
है! यह भी तो आराम से मुस्कुरा कर सीट के लिए कह सकता है! पर कहे भी क्यों !! जिस
तरह मैंने सीट खाली होने का इंतज़ार किया यह क्यों नहीं कर सकता!!!” वह ठिठक कर
सोचता रहा..
आवाज़ और
बुलंद होकर उस पर टूट पड़ी, “समझ नहीं आता क्या!! सीट !! हेलो.. आई सेड सीट!! डोंट
यू गैट इट!! दिस सीट इस रिजर्व्ड!! सच एन इललिटरेट मैन !!! देख क्या रहे हो !! खड़े
होकर सीट दो !!” वह मशीन की तरह उठा और वापस वहीं सामने जाकर खड़ा हो गया..
“कहाँ कहाँ
से चले आते हैं, ये गंवार लोग, देखो इन्हें.. हद है..”, वह बुजुर्गनुमा आदमी सीट
पर बैठने के बाद भी देर तक ऊँची आवाज़ में यह सब दोहराता रहा.. डिब्बे में मौजूद
कोई ऐसा इंसान न था जिसने उस ‘गंवार’ कहे गए व्यक्ति को कई-कई बार ऊपर से नीचे तक
न देखा हो.. वह सहम गया.. उसने ऊपर लिखे शब्दों को टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ा, ‘वृद्धों
व विकलांगों के लिए’ (आरक्षित).. वह जड़ हो गया.. पीछे मुड़ कर उस सीट के ऊपर लिखा
हुआ भी पढ़ा जहाँ उससे किसी ने मुस्कुरा कर सीट मांगी थी, ‘केवल महिलाओं के लिए’ (आरक्षित)..
उसे भारी अपराध बोध हो रहा था.. जैसे उसने किसी की हत्या कर दी है और ऐसा करते हुए
उसे सबने देख लिया.. वह धीमे क़दमों से उस डिब्बे से गुज़र कर अगले डिब्बे में दाखिल
हो गया.. जानता था कि नज़रें उसका पीछा कर रही हैं..
'Helpless' painting by bizah-m |
हुडा सिटी
सेन्टर आने में अभी वक्त था.. वह उतर जाना चाहता रहा होगा पर खो जाने के डर ने उसे
ऐसा करने से रोक लिया.. कुछ दूर चल कर वह एक जगह खड़ा हो गया.. अब तक कई स्टेशन
गुज़र चुके थे.. डिब्बों में लोग बदल गए थे.. अब नज़रें उसका पीछा नहीं कर रही थीं..
वह थोड़ा सहमा हुआ था.. चुपचाप.. शांत.. विजय की मुस्कान खो गई थी पर फिर भी अब वह
अपने डर को सम्भाले निश्चिंत हो रहा था.. वह कोने में जाकर बैठ गया.. बैठा ही था कि मेट्रो में घोषणा हुई , “मेट्रो
में यात्रा कर रहे यात्रियों से अनुरोध है कि मेट्रो में सफर करते समय मेट्रो की
जमीन पर न बैठें.”.. वह सिहर गया.. जैसे उसने फिर कोई अपराध किया.. जैसे फिर सबने उसे
देख लिया और फिर सबको बता दिया उसके पिछड़े होने के बारे में.. उसने चारों तरफ देखा
और अपने घुटनों में अपना मुंह छिपा कर फफक कर रोने लगा..
मैं उसे चुप
करवाना चाहती थी और यह बताना भी की वह सिर्फ एक घोषणा है जो नियत समय पर होती रहती
है.. पर शहर से उसके सिलसिलेवार अनुभव ने मुझे बहुत छोटा कर दिया.. शहर उत्साह को
तेज़ी से मारता है.. शहर वाकई कितना ज़हरीला और कितना छोटा है...!
छोटे जगहों से आये लोगों को शहर शुरुआत में बहुत डराता है। मैं तो पहले दिन ही मेट्रो में छूट गया था जबकि मेरा दोस्त बाहर निकल गया था। मैं भी रुआंसा हो गया था। मेरी मेट्रो वाली फोटो उसी दिन का है।
ReplyDeleteवह चारों तरफ आश्चर्य से देखता रहा और मैं उसके देखने को।
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