Sunday, 17 January 2016

रंगमंच की दीवारें

मैं 2007 से लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि/एनएसडी) जाती रही हूँ. इसके पीछे वजह यह कभी नहीं रही कि मुझे भविष्य में अभिनय की दुनिया से जुड़ना था. यह भी नहीं कि मुझे नाटकों पर बड़े लेख लिखने थे या किसी बड़े विश्वविद्यालय के विभाग में नाटक विधा की महत्ता और उपयोगिता’ जैसे किसी विषय पर पीएचडी करनी थी. यह वह समय था जब मुझे इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि नाटक’ को पाठ्यपुस्तक के जरिए पढ़ा भी जाता है. हाँ, ‘अभिनय एक कला हैजिसे सीखा जाता है’ यह मुझे ज़रूर पता था. लेकिन इस बात का मेरे नाटक देखने से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था.

'मुझे नाटक देखना अच्छा लगता है.' बस इतनी-सी वजह! इतनी वजह पर्याप्त होती थी सत्तरह अठारह की उम्र में सलमान खान – शाहरुख खान की फिल्में देखने के बाद और अपने दोस्तों के बीच कूल’ बनने के बाद भी उस भीड़ से निकल कर एनएसडी तो कभी श्री राम सेन्टर के बाहर लाइन लगाने के लिए. नाटक मेरे लिए एक समान्तर दुनिया है. हाँ एक बात और कि फिल्मों के लिए दोस्तों का झुण्ड भले ही मिल जाता हो पर नाटक के लिए शायद कभी कोई इक्का - दुक्का तैयार होता था. मैंने दस में आठ दफे खुद को अकेला पाया. शिकायत बिल्कुल नहीं. अकेले घूमने से मैंने यूँ भी कभी परहेज़ नहीं किया. 

नाटकों को देखने के लिए, ‘पहले आयें-पहले पायें’ जैसी अवधारणा ने भी मुझे कभी नहीं रोका. नाटक की टिकट कतारों में मैंने खुद को हमेशा पाया. नाटक के सिलसिले में मैं कहीं ज्यादा भावुक हूँ. अपने साथ किसी को ले जाऊं और देख कर कोई कह दे कि, “बोरिंग था!” या फिर ये क्या दिखा दिया यार!” जैसे जवाब कल्पना में भी आहत कर जाते हैं. नाटकों को लगातार देखने ने नाटक की समझ पैदा की. मैंने देखा. कभी थोड़ा समझ आयाकभी वह भी नहीं. धीरे-धीरे समझ आने लगा. यह समझ मुझे किसी पाठ्यपुस्तक से नहीं मिली. अब भी वजह वही थी. 'नाटक देखना अच्छा लगता है'.

बापी बोस द्वारा निर्देशित 'मुक्ति' नाटक का एक दृश्य ( मुक्तिबोध के जीवन पर आधारित) फोटो - प्रीति तिवारी
इसी क्रम में मैंने महसूस किया कि नाटक के बाहर की दुनिया में नाटककर्मी फ़िल्मी सितारों की तरह नहीं हुआ करते. नाटक तो उन्हें लाइफ इंश्योरेंस करवाने जितना भी मुहैया नहीं करवाता. यह सच परेशान करता रहा. कई बार सोचती कि शाहरुख खान एक बार शूटिंग करता है. फिल्म बन जाने के बाद उसे दोहराना नहीं पड़ता. वह अभिनय फिर उसकी सारी जिन्दगी की कमाई का हिस्सा बन जाता है. रंगकर्मी को कितना कम मिलता है यह सोच कर तकलीफ होती. जबकि वह एक-एक नाटक को कई-कई बार दुहराता है. नाट्य-विश्लेषण की किताबों में इसे नाट्य विधा की विशेषताओं में शामिल किया जाता है. (जीवन्तता) क्या वाकई! उसे जीवंत बनाने वाले कर्मियों की जिन्दगी अक्सर अभाव और गुमनामी में ही खो जाती हैबशर्ते की किस्मत उन्हें लम्बी रेस में हारने और मरने से रोक ले. यह याद रखना ज़रूरी है कि नाटक से जुड़ा हर दूसरा नाम नसीरुद्दीन शाह या ओम पुरी नहीं होता. महिलाओं के बारे में बात कि जाए तो दस नाम गिनवाने में ही स्मृति जवाब दे जाती है. सुरेखा सीकरी जैसे नाम गिनवा कर मुक्त हो जाना बहुत आसान है. ऐसे में मेरे नाटक देखने की वजह में अच्छा’ लगने के साथ एक दायित्वबोध’ भी जुड़ गया. मुझे कोई अनुदान नहीं मिलता जिससे नाटक देखकर मैंने कोई क़र्ज़ चुकाया हो. मैंने अपने थोड़े-से जेबखर्च का बड़ा हिस्सा नाटक देखने पर खर्च किया है. इसे मैंने अपने सुखद अनुभवों में गिना है.

पिछले साल जब एनएसडी में एक ही दिन में तीन बार दाखिल होते समय तीन बार हाजिरी लगा कर अंदर जाने की वजह दरवाज़े पर खड़े गार्ड को बतानी पड़ी तब लगा कि कुछ बदल रहा है. फिर लगा कि सुरक्षा कारणों की वजह से ऐसा किया जा रहा है. एनएसडी इतने सालों से असुरक्षित तो नहीं था! एनएसडी की हवा से महसूस हो रहा था कि अब फिज़ा बदल रही है. लेकिन बहुत जल्द किसी फैसले पर कूदना मुझे नहीं आता.

इस साल की शुरुआत में चोट की वजह से मेरे कुछ नाटक छूट गए. प्लास्टर उतरने के तीसरे ही दिन मैंने एनएसडी की राह ली. यहाँ सब कुछ अलग है. दरवाज़े पर ही, “कहाँ जाना हैक्यों जाना हैकिससे मिलना है?” जैसे दस सवाल पूछे गए. सोचा दस्तखत करके शायद अंदर जाना नसीब होगा पर बदले में एक मुस्तैद सवाल आया कि, “आप यहाँ के स्टूडेंट हो क्याआई-कार्ड दिखाओ!” इस सवाल ने चौंका दिया. मैं तो कभी स्टूडेंट नहीं थी! तो क्या अब सिर्फ अंदर वहाँ के छात्र ही जा पाएंगे!! यह भी क्या बात हुई!!” जब उनसे सारे नाटकों और उनकी समयसारणी के बारे में कुछ जानना चाहा तो जवाब मिला कि, “बाहर सड़क किनारे बैनर लगा है वहाँ से देख लो!”.

आखिर तक अंदर जाना नसीब नहीं हुआ. बेहूदगी से अंदर से आकर किसी ने पूछा कि, “क्या मिल जाएगा अंदर जाकर! फ़िज़ूल जिद्द है! इस जवाब ने मेरे उत्साह को मार दिया. अंदर वाकई कभी कुछ नहीं था. पर अच्छा लगता था.

यहाँ मैं सिर्फ मैं ही नहीं हूँ. मेरे जैसे बहुत हैं जो अकेले बिना किसी शर्त अपने जेबखर्च और वक्त का बड़ा हिस्सा यूँ ही नाटकों की दुनिया पर खर्च करना पसंद करते रहे हैं. अब कितना कर पाएंगे यह नहीं पता! मुझे नाटक देखना अच्छा लगता है इसलिए मैं अब भी देख लूंगी पर नाटक देखना सिर्फ बन्द कमरे में एक या दो घंटे का लाइव परफार्मेंस’ देखना भर नहीं होता बल्कि एक पूरा माहौल होता है जहाँ नाटक देखने से पहले किसी एक तस्वीर को देख कर आप रुक जाते हैं. नाटक खत्म होने के बाद बीच सड़क पर ट्रैफिक की आवाज़ सुनना नाटक देखना नहीं है. बाहर निकल कर किसी कोने में बैठ कर खुद भूल जाना भी नाटक का हिस्सा है. अब सिर्फ नाटक होंगे. कोरे नाटक. अब सवाल यह है कि आने वाले कुछ सालों में अगर दिल्ली में नाटक के चाहने वालों की संख्या थोड़ी-बहुत’ कमी आए तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा!

जनसत्ता में 15 जनवरी को प्रकाशित, देखने के लिए क्लिक करें|

दुनिया मेरे आगे, 15 जनवरी 2016

No comments:

Post a Comment