(आनंद पटवर्धन के
लेक्चर का अनूदित व संपादित संस्करण, मूल लेख के लिए क्लिक करें- http://patwardhan.com/?page_id=2640 )
अनुवाद -
प्रीति तिवारी
गाँधी का हत्यारा
नाथूराम गोडसे ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) का सदस्य था और ‘हिन्दू महासभा’ से भी
जुड़ा था। हत्या में बराबर के हिस्सेदार नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने जेल से बाहर
आने के बाद एक इंटरव्यू में इस बात को स्वीकारा कि नाथूराम और उसने कभी आरएसएस
छोड़ा ही नहीं था। यही नहीं उसने आरएसएस और सावरकर को बचाने के लिए झूठ भी बोले थे।
गाँधी की हत्या के
बाद गोलवलकर व अन्य आरएसएस कार्यकर्ताओं को जेल भेज दिया गया। रामचंद्र गुहा लिखते
हैं, “(हत्या से दो महीने पहले) 6 दिसम्बर 1947 को गोलवलकर ने दिल्ली के करीब गोवर्धन शहर के
पास, आरएसएस कार्यकर्ताओं की एक बैठक बुलाई। पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक
में यह चर्चा हुई कि किस तरह कांग्रेस के प्रमुख व्यक्तियों की हत्या की जाए ताकि
जनता में मन आतंक पैदा किया जाए और उन्हें अपनी जद में लिया जाए।”
एम एस गोलवलकर |
आरएसएस के पास लिखित संविधान और आधिकारिक सदस्यों की कोई सूची न होने के कारण गाँधी की हत्या में आरएसएस की संलिप्तता कभी साबित नहीं हो सकी। अतः जून 1949 में आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया गया। जिन्हें यह लगता है कि गाँधी की हत्या पूरी तरह से एक पृथक कृत्य था उन्हें फिर से सोचने की ज़रूरत है।
भारत में तेजी से उभर रहा शिक्षित मध्यम वर्ग 1885 में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की
स्थापना के रूप में सामने आया जिसमें मुख्य तौर पर व्यवसायी, उद्योगपति और वकील शामिल थे। हालाकि यह
बात सच है कि स्वतन्त्रता आंदोलन ने गांधी के आगमन के बाद ही बड़ा फलक पाया और तब
बड़े पैमाने पर मजदूरों और किसानों को इससे जोड़ा गया।
‘हिन्दू
महासभा’ और ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ जैसे धार्मिक संगठनों का जन्म ही ‘धर्म’ और
‘राष्ट्रवाद’ की बुनियाद पर हुआ। कांग्रेस गठन के तीन साल के भीतर ही अगस्त 1888
में अलीगढ़
के सर सैयद और काशी के राजा शिवप्रसाद ने अंग्रेजों को अपनी निष्ठा व्यक्त करने के
लिए ‘यूनाइटेड इंडिया पैट्रिऑटिक एसोसिएशन’(1888) का गठन किया। इसी ‘पैट्रिऑटिक
एसोसिएशन’ का विस्तार ‘मुस्लिम लीग’ (1906), ‘हिन्दू महासभा’ (1915) और ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (1925) जैसे धार्मिक संगठनों की शक्ल में
हुआ। उच्च जाति के ब्राह्मणों द्वारा नागपुर में गठित ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’
ने अभी तक सबसे गहरे साम्प्रदायिक निशान छोड़े हैं।
‘धर्म’
और ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर साम्प्रदायिक संगठन बने और मजबूत भी हुए पर इनका लक्ष्य
भारत को आज़ाद करना नहीं था। आंकड़े यह सच सामने रखते हैं कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ
‘राष्ट्र’ की लड़ाई में किसी साम्प्रदायिक संगठन ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी और न ही
‘आरएसएस’ व ‘हिन्दू महासभा’ के किसी भी सदस्य को जेल हुई। प्रारम्भिक अपवाद 1910 में हुई सावरकर की गिरफ्तारी है,
जिन्हें अंडमान भेज दिया गया था। वजह सावरकर का 1857 के विद्रोह से जुड़े हिन्दू व मुसलमान
दोनों की ही प्रशंसा करना थी। तब तक वे साम्प्रदायिक नहीं हुए थे और देश की आज़ादी
की चाह रखते थे। इस बात की पुष्टि सावरकर की 1909 में प्रकाशित किताब ‘इंडियन वॉर ऑफ
इंडिपेंडेंस 1857’
से होती है। अंडमान कैद के दौरान ही सावरकर हिन्दुत्व के विचारक बने और अपने
‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ को ‘धर्म’ से पृथक दिखाते हुए ‘हिन्दूवाद’ शब्द दिया। जेल
में सावरकर के अंग्रेजों को लिखे कई माफीनामे दर्ज किए गए। सन 1921 में अंडमान से लौटे सावरकर ने फिर कभी
ब्रिटिश सरकार और उनकी नीतियों की मुखालफ़त नहीं की। उसके बाद सावरकर का लक्ष्य केवल
हिन्दुत्व का प्रचार रहा।
सन 1857 के विद्रोह की सराहना करने वाले सावरकर ने 1942 के कांग्रेस द्वारा चलाए गए ‘भारत छोडो आन्दोलन’
का विरोध किया। इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दुओं को ‘युद्ध कला’ सीखने के लिए
ब्रिटिश सशस्त्र बलों में शामिल होने के लिए भी कहा। सावरकर ने 1937 में बतौर ‘हिन्दू महासभा’ अध्यक्ष “राजनीति का
हिंदूकरण और हिंदुत्व में सशस्त्रीकरण” (“Hinduize all Politics and Militarize Hindudom”) का नारा दिया।
आरएसएस के प्रभावशाली
विचारक और 33 साल तक आरएसएस प्रमुख रहे गुरु माधव सदाशिव
गोलवरकर ने भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई का विरोध किया। आज़ादी की सुबह 14 अगस्त 1947 को
आरएसएस के अंग्रेजी पब्लिकेशन ‘द ऑर्गनाइजर’ ने ‘राष्ट्रीय ध्वज’ के रूप में
‘तिरंगा’ चुने जाने की खुलेआम निंदा की। जिसके पीछे कारण बताया- शब्द ‘तीन’ का हिंदुओं
के लिए अशुभ होना!
हिटलर की आत्मकथा |
यह मसला व्यक्तिगत
राय और दलीय विचारधारा तक सीमित कर दिया जाता है पर जब वह पाठयक्रम की शक्ल में
आता है तब वह उतना सामान्य नहीं रह जाता है पर जब पाठ्यक्रम की शक्ल में आता है तब
उतना हल्का नहीं रह जाता। गुजरात के पाठ्यक्रमों में झांके तो पता चलता है कि वहाँ
गाँधी से ज्यादा महान हिटलर है। इन किताबों में फासीवाद और नाजीवाद को सही माना
गया है। भयावह स्थिति यह थी कि कक्षा आठ के विद्यार्थी को ‘गाँधी के असहयोग
आन्दोलन के नकारात्मक पहलू’ पढाया जा रहा था। कक्षा दस की सामाजिक विज्ञान की
पाठ्यपुस्तक में ‘हिटलर, द सुप्रीमो’ और ‘फासीवाद की आंतरिक उपलब्धियाँ’ नाम के
पाठ शामिल थे। (‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’, अहमदाबाद संस्करण, 30 सितम्बर 2004 की खबर)
स्त्री व दलित
संबंधी विचार
ये साम्प्रदायिक
ताक़तें हमेशा से ही राष्ट्र की संकीर्ण परिभाषा चाहती रहीं। देश के संविधान के
प्रति भी हिंदूवादी नजरिया ही रहा। इस संदर्भ में यह जानना बेहद अहम है कि 1950 में आरएसएस ने भारतीय संविधान का विरोध करते हुए
‘मनुस्मृति’ यानी कि “एक स्त्री, शूद्र या नास्तिक की हत्या पाप नहीं है” (मनु IX, 17 और V। 47, 147) ऐसे नियम देने वाले मनु के कानून को ही देश का
कानून बनाए जाने की मांग की थी। यानी प्रत्यक्ष तौर
पर ऐसे कथनों को ठीक समझा गया।
गाँधी पर मुसलमान
हितैषी होने का आरोप तो बाद में लगा। इन साम्प्रदायिक संगठनों ने गाँधी को अपना मल
उठा कर उच्च जाति को प्रदूषित करने और मनु के कानून को तोड़ने के आरोप में पहले ही
तिरस्कृत कर दिया था। सन 1927 में दलित शिक्षा की वर्जना को तोड़ने वाले डॉ
अम्बेडकर ने अपने बहु-जाति अनुयायियों के साथ मिल कर ‘मनुस्मृति’ को जलाया। दहन
कार्य सहस्त्रबुद्धे नाम के अम्बेडकरवादी ब्राह्मण ने संपन्न किया पर इसके बाद भी
हिन्दुत्व के निर्माताओं ने ‘मनुस्मृति’ को पवित्र ही माना। जहाँ सावरकर ने
मनुस्मृति को ‘’वेदों के बाद सबसे अधिक पूज्यनीय ग्रन्थ’’ और “राष्ट्र की
अध्यात्मिकता और दिव्य उन्नति का आधार” बताया वहीं गोलवलकर ने मनु को “पहला और
मानवजाति का महान बुद्धिमान कानूनदाता माना”।
डॉ बी आर अम्बेडकर |
जातिवाद बढ़ता ही गया
और साथ ही हिन्दुओं को दिलाया गाँधी का वह आश्वासन भी टूटता गया जिसमें उन्होंने
ऊँची जातियों के हृदय-परिवर्तन होने का भरोसा जताया था। सन 1956 में डॉ अम्बेडकर ने एक लाख दलित अनुयायियों के
साथ हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया। यह इतिहास का सबसे बड़ा जन
धर्मान्तरण था।
धर्म परिवर्तन से दलित
आत्मसम्मान में इजाफा हुआ। इसके अलावा मुश्किलों से हासिल आरक्षण नीति ने कुछ हद
तक आर्थिक सुधार भी किए पर दलितों पर हमले नहीं रुके। यहाँ तक कि रोजाना औसतन तीन
दलित महिलाओं का बलात्कार और दो दलितों की हत्या होती है।
अल्पसंख्यकों पर
हमले
हिन्दुत्व ने हमेशा
स्त्रीयों, दलितों व अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया है। इनका पहला निशाना इस्लाम
रहा है। हिन्दुत्व ने हमेशा मुसलमानों का पैशाचिक तस्वीर उकेरी है जहाँ उनकी
क्रूरता, बलात्कार और मंदिरों को नुकसान पहुँचाने से जुड़े मिथकों को बचपन से
नियमित तौर पर दिमाग में बैठाया जाता रहा है। यह क्रोध और घृणा इस कदर हावी होती है
कि मुसलमान द्वारा किसी हिन्दू महिला के अपहरण या बलात्कार की अफवाह के सामने आते
ही दंगे की शुरुआत हो जाती है जबकि कोई उस अफवाह की पुष्टि की प्रतीक्षा भी नहीं
करता। दंगे फैलाना और नरसंहार करना किस हद तक आसान है।
हिन्दुत्व इसका कारण
उनकी बढती हुई जनसंख्या के कारण पैदा हुई असुरक्षा की भावना को बताता है। यह सच है
कि आज़ादी के बाद मुस्लिम जनसंख्या में मामूली बढ़त ज़रूर हुई है पर इसकी वजहें वह
नहीं हैं जो हिन्दुत्व मानता है और यकीन करने के लिए कहता है। इसकी वजह धर्मान्तरण
या ‘लव जिहाद’ नहीं है और न ही इसका सम्बन्ध मुसलमान पुरुषों के चार पत्नियाँ रखने
की अनुमति से है। इसकी जड़ इस सच्चाई में है कि प्रत्येक धरातल पर मुसलमान गरीब हैं।
सच्चर कमेटी की
रिपोर्ट से यह साफ़ है कि भारत में मुसलमान शिक्षित कम और गरीब अधिक हैं। इसके
अलावा राष्ट्रीय, राज्यीय विधायिकाओं और नौकरशाही में उनकी मौजूदगी बहुत कम है।
सेना और अर्ध सेना में उनकी मौजदूगी की बात न ही की जाए तो बेहतर है। केंद्र और
अधिकांश राज्यों में भाजपा की मजूबत पैठ ने सरकार में मुसलमानों को मौजूदगी और भी
अधिक दुर्लभ किया है। इसके भी ऊपर आतंकवाद को सीधे इस्लाम से जोड़ देने के तथ्य और
मिथक दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन देते हैं। यह एक लोकप्रिय धारणा बनी है कि,
‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’। इसकी आड़ में
‘इस्लामी आतंकवाद’ को ‘इस्लाम’ का ही पर्याय बना दिया गया है।
स्टेन परिवार |
इन
शक्तियों की ताकत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा शासित केन्द्र
सरकार द्वारा नियुक्त वाधवा आयोग ने स्टेंस की हत्या में बजरंग दल की भूमिका को
नकारते हुए उसे शांतिपूर्ण और कानूनी संगठन करार दिया। चर्च में आग लगा दिए जाने
के बाद बच कर निकल रहे ईसाई धर्म गुरु अरुल दास की तीर मार कर हत्या करने और
मुस्लिम व्यापारी शेख रहमान की हत्या के आरोपी दारा सिंह को मौत की सजा सुनाई गई।
हालाकि अपील पर उस सजा को रोक दिया गया। सजा को बदलने के दौरान सुप्रीम कोर्ट का
कहना था कि, “उसका इरादा उसे उसकी धार्मिक
गतिविधियों का सबक सिखाने का था, मारने
का नहीं।” हिन्दुत्व की वेबसाइटों पर आज भी दारा
सिंह को ‘हिन्दू धर्म रक्षक’ की तरह देखा जा सकता है।
सन
1990 के बाद ईसाईयों पर हमले, हत्या
और बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। 2008 में उडीसा के कंधमाल की घटना इसका
बड़ा उदाहरण है। जिन राज्यों में भाजपा या भाजपा गठबंधन की सरकारें हैं वहाँ स्थिति
और भी बदतर है। ऐसे मामलों में धर्मान्तरण के सारे आरोप झूठे होते हैं। सच्चाई यह
है कि आज़ादी से अभी तक भारत में ईसाईयों की संख्या घटकर 2.6 फीसद से 2.3 फीसद हो
गई है।
आरएसएस
का पुनरुत्थान
आरएसएस |
गाँधी हत्या के दो दशकों बाद तक आरएसएस मुख्यधारा की घृणा का पात्र रहा। इस दौरान पर्दे के पीछे से लगातार अपनी शाखाओं को संचालित करता रहा जिसमें वह 6 से 18 साल के बच्चों की भर्ती कर उन्हें ट्रेनिंग देने का काम करता रहा। यह ट्रेनिंग शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की होती रही। जिसमें राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत को गहरे घोला जाता रहा। संघ की शाखा में प्रशिक्षित होने वालों में एक आठ वर्षीय बच्चे का नाम था नरेन्द्र मोदी। इन्हें आरएसएस ने ट्रेनिंग देकर तैयार किया। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह सहित पांच मुख्यमंत्री और तेईस कैबिनेट मंत्रियों में से सत्रह या तो आरएसएस सदस्य हैं या रह चुके हैं। मार्च 2014 में ‘गार्डियन’ की रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस के पूरे देश भर में पचास हज़ार से अधिक शाखाएं हैं जिनमें चार करोड़ से ज्यादा सदस्य है। पूरे भारत में आरएसएस का नेटवर्क कम से कम अठारह हज़ार स्कूलों में फैला है।
प्रतिबन्धित आरएसएस
ने 1948 में नए और वैध संगठनों की बुनियाद रखनी शुरू की
जो पूरी तरह से आरएसएस के नियंत्रण में थीं। इनमें 1948 में
बनाया गया छात्र संगठन एबीवीपी पहला था। इसी प्रकार क्रमशः जन संघ (1951), विश्व हिन्दू परिषद
(1964), ‘वनवासी कल्याण
आश्रम’ (1952) और ‘बजरंग दल’ (1984) अस्तित्व
में आए। इन सभी संगठनों के निश्चित उद्देश्य थे मसलन चुनाव लड़ना, साम्प्रदायिक
शिक्षा फैलाना, धार्मिक मुद्दे उठाना और आरएसएस को मजबूती देना आदि।
कई दशकों की
अलोकप्रियता के बाद आरएसएस का एक अप्रत्याशित स्रोत द्वारा पुर्नवास हुआ। एक
गांधीवादी समाजवादी – जयप्रकाश नारायण। जेपी को आरएसएस की संकीर्ण राजनीतिक समझ के
बाद भी उसमें राजनीतिक संभावनाएँ दिखाई दीं। जब इंदिरा गाँधी ने आरएसएस को
फासीवादी कहा तो 1974 के छात्र आंदोलन के नेता जेपी ने खुलेआम यह
घोषित किया कि, “यदि आरएसएस फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूँ।” इसके बाद आरएसएस
ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसका प्रमाण 1977 में जनता पार्टी की
गठबंधन सरकार से कांग्रेस को मिली हार थी। पहली बार लालकृष्ण आडवाणी और अटल
वाजपेयी कैबिनेट मंत्री बने। आरएसएस के आदेश मानने के मुद्दे पर 1980 में यह सरकार गिर गई और तब ‘जन संघ’ बदल कर नई
पार्टी, ‘भारतीय जनता पार्टी’ (भाजपा) के रूप में सामने आई।
‘मुस्लिम आतंकवाद’
के आड़ में ‘भगवा आतंकवाद’
अब इस पार्टी ने नई
शक्ल में ‘मुस्लिम आतंकवाद’ के समानांतर ‘भगवा आतंकवाद’ को खड़ा किया। मालेगाँव
ब्लास्ट (2006,2008), समझौता एक्सप्रेस
ब्लास्ट, हैदराबाद मक्का मस्जिद ब्लास्ट इसके बड़े उदाहरण हैं। मालेगाँव बलास्ट
मामले में लगातार सात सालों तक पाकिस्तान पर आरोप लगाने और इस विस्फोट के आरोप में
मुस्लिम संदिग्धों को गिरफ्तार करने तथा यातना देने के बाद मई 2013 में भारत की प्रमुख आतंकवाद विरोधी एजेंसी, नेशनल
इन्वेस्टिगेशन एजेंसी(एनआईए) ने चार कट्टरपंथी हिंदूओं के खिलाफ आरोप दायर किए। ये
चारों आरोपी पूर्व आरएसएस कार्यकर्ता थे।
पुलिस हिरासत में स्वामी असीमानंद |
पुलिस हिरासत में साध्वी प्रज्ञा |
वहीं समझौता एक्सप्रेस धमाके के संदिग्ध आरएसएस कार्यकर्ता सुनील जोशी की हत्या के आरोप में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत तीन लोगों पर मुकदमा दायर किया। एटीएस द्वारा की गई आगे की गिरफ्तारियों ने ‘राष्ट्रीय जागरण मंच’ और ‘अभिनव भारत’ इन दो हिन्दू संगठनों को सक्रिय पाया। इन सभी हमलों में भगवा आतंक की शक्लोसूरत हुबहू उस मुस्लिम आतंक जैसी ही थी जिसे अभी एक साल पहले मुम्बई हमले के दौरान देखा गया।
मौजूदा जल संसाधन
मंत्री उमा भारती और शिव सेना ने सार्वजनिक तौर पर अभियुक्तों का बचाव किया।
लालकृष्ण आडवाणी ने एटीएस की कार्यवाही को ‘राजनीति-प्रेरित’ और ‘अव्यावसायिक’ भी
कहा। यही नहीं, तत्कालीन एटीएस की टीम में बदलाव की मांग भी की। एटीएस प्रमुख स्व
हेमंत करकरे संघ परिवार के निशाने पर थे। 2008 हमले में उनकी मौत
के बाद उनकी पत्नी कविता करकरे ने गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से एक करोड़
लेने से इन्कार किया। वजह साफ़ थी। मोदी के साथ पूरा संघ परिवार और शिव सेना सभी भगवाधारियों
के फैलाए आतंक की जांच कर रहे हेमंत करकरे के खून के प्यासे थे।
वैश्विक संदर्भ
आज़ादी से 1970 के दशक तक भारत शक्तिशाली अमेरिका और सोवियत रूस
से समदूरस्थ रहा। नेहरू की आर्थिक नीति भी सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच की रही। 1971 के बांग्लादेश युद्ध में जब अमेरिका ने पाकिस्तान
की तरफदारी की तब भारत सोवियत रूस के करीब आया।
1947 से पडोसी देश अफगानिस्तान की सोवियत रूस से
दोस्ती थी। रूस उसे आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक मदद देता था। बहुत से अफगानी, खासकर
औरतें इस धर्मनिरपेक्ष दौर को प्यार से याद करते हैं। 1979 में अमेरिका ने दुनिया के बिन लादेन जैसे
जिहादियों को पाकिस्तान में इकठ्ठा कर कम्युनिस्ट अफगानिस्तान पर हमला बोला। नतीजा
भारत में भी साम्प्रदायिक ताकतें बढ़ीं। अमेरिका के लिए सोवियत समर्थक भारत को
अस्थिर करना आकर्षक लगा होगा।
यह भी एक सवाल है कि
क्या यह महज इत्तेफाक था या नियोजित था कि लगभग एक ही समय पर कश्मीर में इस्लामिक
आतंकवाद ने जोर पकड़ा और पंजाब ने सिख अलगाववादी आन्दोलन सहन किया। लगातार हिंसा के
माहौल के बाद संसद में भाजपा 2 सीटों से बढ़कर 88 तक पहुँच गई। यह उदारीकरण की शुरुआत थी और
हिन्दुत्व भी साथ ही अपना कद बढ़ा रहा था।
श्री श्री रवि शंकर का अभिवादन करते नरेन्द्र मोदी |
छवि परिवर्तन
गाँधी का संदेश |
छवि परिवर्तन में गाँधी का संदेश |
जहाँ मोदी ने यह दावा किया है कि गुलबर्ग सोसायटी में चल रहे नरसंहार से वे लगातार पांच घंटों तक नावाकिफ थे, वहीं दूसरा दावा यह भी था कि उस दिन वे पुलिसकर्मियों के साथ बैठक कर लगातार चल रही दंगे की निगरानी कर रहे थे। एसआईटी ने गुजरात राज्य सरकार पर पुलिस की रिकॉर्ड्स और सरकार से उसकी मीटिंग आदि सहित बड़े सबूतों को नष्ट करने का दोषी होने की भी पुष्टि की।
कॉरपोरेट जगत की
मीडिया ने फिर भी बड़े पैमाने पर इसे ‘क्लीन चिट’ कह कर माहौल बनाया। मोदी के करीबी सहयोगी अमित शाह को मिली
‘क्लीन चिट’ और अधिक आश्चर्यजनक है। सोहराबुद्दीन, कौसर बी और तुलसी प्रजापति के फर्जी
मुठभेड़ में हत्याओं का आरोपी होकर भी ‘क्लीन चिट’ पाना आश्चर्यजनक है। मामला अभी
अदालत में है। इतने गंभीर आरोपों के बावजूद उत्तरप्रदेश चुनाव के लिए भाजपा की तरफ
से मोदी ने अमित शाह को चुना। मुज्ज़फरनगर दंगा शाह की मौजूदगी में अंजाम दिया गया
जिसकी परिणति भाजपा की जीत कि शक्ल में हुई।
2009 में मोदी ने एक अमेरिकी कंपनी APCO को बेहतर जन सम्पर्क के लिए हायर किया। जन-सम्पर्क
वाकई कमाल का हुआ। नरेन्द्र मोदी को अलग-अलग सांस्कृतिक टोपियाँ पहनते हुए देखा
गया (यह बात और है कि मुस्लिम टोपी पहनने के आग्रह पर उनकी परवरिश में रचे बसे
मुस्लिम विरोधी रूप को देखा गया, जिसे शातिराना ढंग से निपटा भी दिया गया), वे डॉ
अम्बेडकर की मूर्ति पर माला पहनाते देखे गए, टीवी पर बच्चों से बात करते देखे गए,
तस्वीरों में झाड़ू उठाते हुए दिखे पर यह सब तब तक बनावटी रहेगा जब तक जाति की
व्यवस्था टूट नहीं जाती। नरेन्द्र मोदी को अपनी जड़ों से दूर हो चुका मानने वालों
को 2010 में प्रकाशित गोलवलकर के लिए लिखा गया उनका
प्रशंसापत्र ‘श्री गुरूजी: एक स्वयंसेवक’ पढ़ना चाहिए।
विकास की परिभाषा और
पर्यावरण से छेड़छाड़
आज ‘विकास’ की बात सबसे ऊपर है. मोदी का ‘विकास’ कोई
दुर्घटना नहीं है, न ही मनमोहन, अहलूवालिया या चिदम्बरम की थी. बात बस इतनी थी कि
वे संसाधनों पर कब्ज़ा करने वाले कॉरपोरेट जगत की तेज़ी से बढती मांग के साथ तालमेल
नहीं बैठा पा रहे थे. ऐसे में अगर ‘विकासपुरुष मोदी’ नहीं भी होते तो उनका
आविष्कार किया जाता. केवल शेयर बाजार के माध्यम से नदियों को जोड़ना, खनन
परियोजनाएं और विनिवेश आदि ही काफी नहीं है. यह विचारधारा अभी और गहरे जाएगी. वैसे
भी गुजरात स्टेट स्टैंडर्ड आठवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक के ‘हमारी
अर्थव्यवस्था’ अध्याय में सभी समस्याओं का निवारण उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण
के रूप में दर्शाया गया है.
शिक्षा के अधिकार से समझौता
उदारीकरण के प्रति निष्ठा का भाव भाजपा गठबंधन की सरकार
बहुत पहले ही दिखा चुकी थी. सन 2009 में कांग्रेस पारित
शिक्षा के अधिकार के लागू होने से बहुत पहले ही नव उदारवादी समूहों द्वारा
समतावादी सिद्धांतों को धीरे-धीरे खत्म करने की कवायद शुरू कर दी गई थी। भाजपा
शासित सरकार द्वारा 2002 के 86वें संवैधानिक संशोधन में 0 से 6 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा के अधिकार के दायरे से बाहर रखा था।
इस तरह वे न केवल उनकी प्रारम्भिक शिक्षा के अधिकार को छीन रहे थे बल्कि साथ
मस्तिष्क के विकास के लिए बेहद अहम पोषण यानी कि मिड डे मील से भी वंचित कर रहे थे।
साफ़ है कि 2004 की अपनी चुनावी हार से थोड़े पहले ही गठबंधन की भाजपा
सरकार ने शिक्षा जैसे एक बुनियादी संवैधानिक अधिकार के साथ समझौता किया और शिक्षा
को उपभोज्य वस्तु के रूप विश्व व्यापार संगठन जीएटीटी (जेनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ
एंड ट्रेड) के समक्ष पेश किया। ऐसा करते हुए सरकार ने निजीकरण के दरवाजे खोलने की
कोशिश की और राज्य की जिम्मेदारी को दाव पर लगाया। वास्तविकता यह है कि न तो
कांग्रेस और न ही भाजपा एक समान स्कूल की मांग करता है जहाँ अमीरों और गरीबों
दोनों के बच्चे समान रूप शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसके ठीक विपरीत ‘उत्कृष्टता’ के
नाम पर शिक्षा का जोरों से निजीकरण किया जा रहा है। इसका सीधा सम्बन्ध आधुनिक जाति
व्यवस्था में गरीबों और दलितों को अधकचरी और दोयम दर्जे की शिक्षा देकर ऐसा बनाए
रखना है जिससे वे बड़े होकर कूली ही बन पायें। वर्तमान राजनीतिक धड़े द्वारा किया जा
रहा शिक्षा का साम्प्रदायिकरण एक भयावह परिदृश्य तैयार कर रहा है। दीनानाथ बत्रा
के वैदिक उड़ान मशीनें और रॉकिट महज आरम्भिक झलकियाँ हैं।
भ्रष्टाचार बनाम
विकास का छद्म आवरण
यह मान लेना सहज है
कि कांग्रेस के सफाए की वजह भ्रष्टाचार थी। भ्रष्टाचार कभी मुद्दा था ही नहीं। एक
पार्टी में ए राजा, अशोक चव्हाण, अजीत और शरद पवार थे तो दूसरी में येदुरप्पा,
नितिन गडकरी, मनोहर जोशी और शिवराज चव्हाण थे। भ्रष्टाचार परियोजनाओं की शक्ल में
है। दाभोल संयंत्र इसका बड़ा उदाहरण है जो करोडों की खपत के बाद आज बन्द है।
अब कई आरोप झेल रहे
मंत्रियों की नज़र उस प्रक्रिया को नियंत्रित करने पर है जिससे जजों की नियुक्ति
होती है। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही भारत को मुकुल रोहतगी जैसा अटर्नी जनरल
मिला। बतौर वकील इनका सबसे बड़ा केस 2002 के दंगों में राज्य
सरकार का बचाव करना था।
मीडिया का गीत
आज की कॉरपोरेट
नियंत्रित मीडिया का पसंदीदा गीत है - ‘लोग बहुत खुश हैं’। जो इसे नहीं गा रहे या
हट कर गा रहे हैं उन्हें उसके परिणाम झेलने पड़ रहे हैं। 2002 में न्यूयॉर्क टाइम्स की सीलिया डगर ने गुजरात
दंगों के कुछ महीनों बाद मोदी के इंटरव्यू के बाद यह लिखा था कि मोदी से यह पूछने
पर कि, ‘उनके शासनकाल में जो हुआ क्या उन्हें उसका खेद है?’, उन्हें जवाब में यह
कहा गया कि, उन्हें इस बात का खेद है कि वे ठीक से मीडिया मैनेज नहीं कर पाए।
यह जाहिर तौर पर एक
ऐसी गलती थी जिसे नहीं दोहराया गया। टीवी मीडिया से लेकर रेडियो तक और प्रिंट से
लेकर इंटरनेट तक सब कुछ उनकी जद में है। पेड विज्ञापनों को भी हालिया दौर में चरम
पर देखा गया। चुनावों से कई हफ्ते पहले से ही अखबारों के मुख्य पृष्ठ नरेन्द्र
मोदी के विज्ञापनों से भर गए। इतनी भारी धनराशि जिसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है।
कुछ सच यदि बाहर आए
भी तो उन्हें मुश्किलों से गुजरना पड़ा। मुज्ज़फरनगर दंगों का सच बयां करने वाली
शुभ्रदीप चक्रवर्ती की डॉक्युमेंट्री को राज्य द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
वेंडी डोनिगर की ‘हिन्दूवाद’ को केन्द्र में रखने वाली किताब को पब्लिशर द्वारा
वापस ले लिया गया। तीन दलितों की हत्या के खिलाफ धरना दे रहे पचास लोगों को
गिरफ्तारी को किसी मुख्यधारा अखबार ने छापने लायक नहीं माना जबकि वहीं वानखेडे
स्टेडियम में एक आरएसएस के व्यक्ति का मुख्यमंत्री पद के शानदार शपथ ग्रहण की खबर चारों
ओर छाई रही। सुनील जाधव और उसके माता-पिता को ऊँची जाति की लड़की के साथ प्रेम करने
के आरोप में मार दिया जाता है और इस मामले में कोई गिरफ्तारी तक नहीं होती।
गाँधी से दुश्मनी और
गाँधी से ही प्रेम
आज नरेन्द्र मोदी
चरखे के साथ तस्वीर खिंचा के उनके प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने की शातिर कोशिश
करते हैं जबकि सच यह है कि नरेन्द्र मोदी के आकाओं ने सिर्फ गाँधी की हत्या नहीं
की बल्कि चरखे के प्रतीक की भी हत्या की। वह चरखा जिसे गाँधी ने कॉरपोरेट जगह और
औद्योगिक क्रान्ति के सामने स्थिरता का प्रतीक बनाया। गाँधी का चरखा कॉरपोरेट जगत
की मुखालफ़त करता था और उपभोक्तावाद के जुनूनी आवेश के खिलाफ खड़ा था। वह वास्तविकता
में गाँधी की चुनौतियों का प्रतीक रहा। मोदी के हाथों में गाँधी का चरखा एक बड़ी
साज़िश को छिपा देता है। मोदी जिस विकास की बात कर रहे हैं, वह हमें गति तो
दिलाएगा, मगर इतनी गति कि हम खाई में गिरने से बच नहीं पाएंगे।
(जनसत्ता में 17 मई 2015 को प्रकाशित)
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