पंडित बुद्धदेव दासगुप्ता (मध्य) अपने सह कलाकारों के साथ. |
‘संगीत’ शब्द कई मायनों में अन्य शब्दों से अलग
है. ऐसा कहने के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि जिस तरह तकरीबन हर शब्द को सुनने के
साथ ही कई तरह की तय परिभाषाएँ दिमाग में घूमने लगती हैं वैसा ‘संगीत’ शब्द सुनने के बाद नहीं होता बल्कि ‘संगीत’ शब्द सुनने के बाद कानों में कई तरह की
ध्वनियां बज उठती हैं जिनका सम्बन्ध किसी भी परिभाषा से नहीं होता. शायद यही वजह
रही होगी जिसकी वजह से तमाम कोशिशों के बावजूद ‘संगीत’ को परिभाषाओं से परे माना जाता है.
परिभाषाओं से परे इस ‘संगीत’ का सबसे ताज़ा और नया अनुभव हुआ ‘भारतीय
विद्या भवन’ के सौजन्य से आयोजित ‘संगीत समारोह’ के दूसरे दिन के कार्यक्रम में जहाँ
पंडित बुद्धदेव दासगुप्ता को सुनने का मौका मिला. मैं अपनी संगीत की रूचि के बारे
में अगर कुछ कहूँ तो सबसे आसान यह कहना होगा कि मैं उस ‘जेनरेशन’ से हूँ जिसने फिल्मों के माध्यम से ही संगीत से परिचय पाया और जो अब
ताज़ा तरीन ‘एल्बम’ के गीतों को गा-गुनगुना कर राहत महसूस कर लेती है. इस ‘जेनरेशन’ से होने के बाद भी मैं काफी ‘ओल्ड
फैशन्ड’ रही हूँ जो ‘ग़ज़ल’ और ‘सेमी क्लासिकल’ भी सुनती रही हूँ पर मुझे पूरी तरह से
शास्त्रीय संगीत सुनने का कोई अनुभव नहीं है और न ही मैं यह जानती हूँ कि कब, कहाँ, किस जगह विशेष पर ‘वाह!’ का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इसके
बावजूद मुझे लगता है कि ‘संगीत की समझ’ और ‘संगीत सुनने की समझ’ भी
शायद ‘संगीत सीखने’ की तरह ही धीरे-धीरे अभ्यास से आने
वाली कला है. बहरहाल, संगीत श्रवण की कला से अनभिज्ञ मैं
सिर्फ ‘सुनने’ के लिहाज़ से ही ‘सुन’ रही थी और शायद इतना कर पाने भर से भी
पर्याप्त खुश थी. अपना स्थान ग्रहण करने के बाद जब पंडित बुद्धदेव दासगुप्ता ने ‘सरोद’ के तार छेड़े तो मैं सोच रही थी कि, ‘मुझे तो सुनना भी नहीं आता!’ और
यह भी कि ऐसे में क्या मेरा सुनना कहीं से भी प्रासंगिक है!!, कहना न होगा कि थोड़ी ही देर के अंदर ‘संगीत’ का असर भी शुरू हुआ. ‘मंत्रमुग्ध
कर देना’ का इस्तेमाल संभवतः इतनी बार हुआ है कि
जिस संगीत को मैंने सुना, उसके लिए अब उसका प्रयोग ‘सामान्य’ (या शायद तुच्छ) जान पड़ता है. मुझे नहीं
पता कि शास्त्रीय संगीत को सुनते समय वादक को देखना कितना अहम होता है कितना नहीं, पर उस समय मेरे लिए यह एक नगण्य-सी बात
रही होगी! एक बार उन्हें (पंडित बुद्धदेव दासगुप्ता) अपने सरोद के साथ मग्न होकर
संगीत क्रीडाएं करते हुए सामने देख लेने के बाद आँखें बंद कर लेना एक ऐसा जरिया
मालूम हुआ जिसके ज़रिये एक दुनिया से निकल किसी दूसरी दुनिया की यात्रा करने के लिए
किसी तरह का कोई भाड़ा चुकाने की ज़रूरत नहीं थी और न ही रास्ते ही खोजने थे! ऐसा
संगीत जो अचानक आपको देश-दुनिया के झमेलों से निकाल कर पहले एक सभागार तक सीमित
होने के लिए बाध्य करता है,
फिर धीरे-धीरे किसी लंबी अवधि में काम
करने वाली दवा की तरह भरे सभागार से भी दूर कहीं किसी अनंत यात्रा पर ले जाता है
जो सभागार में होते हुए भी एक कोने की सीट पर ही सम्पूर्णता का अनुभव करवा देता
है. ऐसा संगीत जो अहिस्ता-अहिस्ता उन महिलाओं की भुनभुनाती आवाजों से दूर ले जाने
लगता है जो सभागार में उपस्थित होकर क्रमशः एक-दूसरे की साड़ियों, चूड़ियों, चप्पलों और झुमकों की तारीफ करने में इस कदर व्यस्त थीं (अक्सर होती
हैं) मानो किसी राग विशेष पर अपना भाव प्रकट कर रही हों और साथ ही उन पुरुषों से
दूर ले जाता है जो चेहरे पर न जाने कहाँ से एक अत्यन्त समझदारी भरा गंभीर भाव ओढ़े, लगाए अथवा चिपकाए रहते हैं मानो अभी झट
से बोल उठेंगे कि, ‘नहीं नहीं, ये नोट ठीक नहीं लगा जनाब!’.
हाँ! वह संगीत ऐसा ही कुछ कर रहा था पर इसी
दुनिया से दूर ले जाते हुए वह संगीत इसी दुनिया से रूबरू भी करवा रहा था, कहीं भीतर ही भीतर ; जहाँ बैठे हुए मैंने आँखें बंद किए यह
महसूस किया कि मैं दूर–दराज़ किसी टापू पर एक अलग सभागार में
बैठी हूँ, आसपास कोई महिला किसी दूसरी महिला से
कह रही है कि, ‘सामाजिकता भी तो एक चीज़ है, निभानी पड़ती है, इसीलिए आ जाती हूँ इन कार्यक्रमों में!’, और मैं अपनी कल्पना में भी आखें बंद
किए खुद को देखती हूँ मुस्कुराते (तकरीबन खीझते हुए भी) और खुद से कहते हुए कि, ‘उफ़ मुझे तो शास्त्रीय संगीत की समझ भी नहीं
है, मैं कैसे समझ पाऊँगी इस वादक के यंत्र
से निकले इस संगीत को !!’
कार्यक्रम खत्म हुआ, एक मित्र का मैसेज आया कि, कार्यक्रम
कैसा था. अभी तक समझ नहीं आ रहा कि जो सुना और जो महसूस किया क्या उसे बयान किया
जा सकता है? शायद संगीत की समझ नहीं है इसीलिए असमर्थ
हूँ. शायद कभी बता सकने कि स्थिति में आ सकूँ कि अनुभव कैसा था !! यकीन मानिए मुझे
अफ़सोस है कि मुझे शास्त्रीय संगीत की समझ नहीं है !
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/54514-2013-11-11-04-34-27
(11 नवम्बर 2013 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित)
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/54514-2013-11-11-04-34-27
(11 नवम्बर 2013 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित)
आपका आलेख जनसत्ता में पढ़ा अच्छा लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद आपका ..
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