Friday, 29 November 2013

शब्द के संदर्भ !


यह एक साधारण-सी घटना है जो विभिन्न स्थानों पर बहुत ही सामान्य तरीके से बार-बार घटित होती है।
चूंकि यह साधारणहोती है, शायद इसीलिए विमर्श का हिस्सा बनने से बच जाती है। बात दरअसल भाषा से जुड़ी है। पिछले लंबे अरसे से मैंने यह महसूस किया है कि भाषा अब केवल संप्रेषण का साधन न रह कर लक्ष्य सिद्धि का हथियार बनती गई है। बहुत-सी साधारण, लेकिन विशेष घटनाओं में से सबसे ज्यादा चौंकाने वाली घटना का संबंध संवेदनाऔर इससे बने शब्द संवेदनशीलसे है। दरअसल, आजकल किसी भी गंभीर मसले पर बातचीत के दौरान संवेदनशीलशब्द का प्रयोग आम हो चुका है। मसलन, चाक-चौबंद सुरक्षा के इंतजामों को देख कर ज्यों ही आप इस बात पर नाज करने लगें कि राज्य अपने नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी को पूरा करने लगा है, ठीक तभी पास खड़े कुछ लोग आपका भ्रम एक फिल्मी अंदाज में तोड़ देंगे, यह कहते हुए कि ये स्थायी इंतजाम नहीं हैं, बल्कि किसी संवेदनशीलघटना या मसले के मद्देनजर किए गए हैं जो महज तात्कालिक हैं।
इसी तरह टेलीविजन के सामने बैठे आप यह सुनते हैं कि कोई भी उद्घोषक अपने संवेदनशीलव्यक्तित्व का परिचय देते हुए बार-बार हर एक घटना-दुर्घटना के बारे में यह बताता जाता है कि अमुक मुद्दा संवेदनशील है। किसी खास वाकये या इलाके के बारे में भी इसी शब्द का प्रयोग आम है।
जब भी धड़ल्ले से इस शब्द का प्रयोग होते सुनती हूं, तब अचानक दिमाग में शब्दार्थका पूरा व्याकरण बदलने लगता है। इसलिए नहीं कि ये मसले संवेदनशीलनहीं होते। बल्कि इसलिए क्योंकि इस तरह के प्रयोगों में शब्दऔर अर्थके बीच एक राजनीतिक साजिश की गंध महसूस होती है। इस शब्द, इसके अनुभव संसार और प्रयोग में निहित राजनीति में विचित्र विविधता दिखाई देती है। यहां संवेदनशीलतासंवेदना से नहीं जुड़ती, बल्कि घबराहट को जन्म देती है। यह अर्थ परिवर्तन का चरम है कि आज संवेदनशीलशब्द अपनी संपूर्णता में संवेदनशीलता से कोसों दूर जान पड़ता है। आज समाचार माध्यमों में इस शब्द का प्रयोग कई बार न केवल घबराहट को जन्म देता है, बल्कि डराता भी है।
अर्थ परिवर्तन के संदर्भ में इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि भाषा का एक अनिवार्य नियम परिवर्तनशील होना है। वह समय और समाज के साथ बदलती है। यह परिवर्तन एक गतिशील प्रकिया की तरह होता है, लेकिन यह प्रक्रिया धीमी होती है। आज जिस गति से भाषा में बदलाव हो रहे हैं, वे बड़े प्रश्न खड़े करते हैं। अगर हर एक शब्द एक प्रतीकहै तो उसके बदलने की गूंज सुनना भी एक बेहद जरूरी और जिम्मेदारी से भरा काम है।
दरअसल, शब्द और शब्दों के अर्थ भी सत्ता के राजनीतिक हथियार होते हैं और जो भी जाति, वर्ग या समुदाय सत्ता में होते हैं, वे अपने हितों को ध्यान में रख कर शब्दों के संदर्भों को रचते और बदलते हैं। ये बदलाव सुनियोजित होते हैं और इनकी दशा और दिशा को इच्छानुसार हवा दी जाती है। मीडिया और अन्य स्थानों पर संवेदनाको सेंसिटाइजकिया जाना कोई सामान्य परिवर्तन नहीं है। बल्कि मेरे खयाल से ऐसा शासकीय समझ से परिचालित एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है। यह सघन बुनावट वाली एक ऐसी क्रिया है जो तात्कालिक स्तर पर निष्क्रियता को जन्म दे रही है। वहीं यह धीरे-धीरे स्थायी अलगाव की पृष्ठभूमि भी तैयार कर रही है।

यह एक बड़ा अंतर्विरोध है कि एक ओर तेजी से संवेदनहीन होते हुए समाज का दुखड़ा रोया जा रहा है, वहीं एक धीमी प्रक्रिया के तहत उसे संवेदनशून्यता की ओर बढ़ाया जा रहा है। ठीक इसी क्रम में सचेतऔर सतर्करहने की स्थिति को शकऔर संदिग्धहोने से परिभाषित किया जा रहा है। यहां सचेतरहने की आड़ में एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से डरना सिखाना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। इस तरह शब्दों के पर्याय के रूप में नए संदर्भ बनाने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर शकऔर संदिग्धताको एक दृष्टि के रूप में विकसित किया जा रहा है और सुरक्षा संबंधी भ्रामक तर्कों के माध्यम से उन्हें स्थापित भी किया जा रहा है। ऐसे में यह देखना बेहद जरूरी हो जाता है कि ये भाषायी प्रयोग अलगाव को गहराई में रोप रहे हैं। सच तो यह है कि इस अलगाव ने भारत जैसे विविधतामूलक समाज को जोड़ने वाले सूत्रों को कमजोर बना दिया है और सामाजिक बिखराव जैसी स्थिति पैदा कर दी है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/35861-2013-01-03-05-24-43
('जनसत्ता' में 3 जनवरी 2013 को प्रकाशित!)

4 comments:

  1. वस्तुतः प्राचीन- काल से ही वाणी की शक्ति अथाह है और सदा रहेगी , यह हम निर्भर करता है कि हम उसका प्रयोग कैसे करते हैं । हमारा चिन्तन सदैव विधेयात्मक ही होना चाहिए । यदि हम पीछे मुडकर देखें तो हमें दिखाई देगा जो पृथ्वीराज चौहान से ,चन्द वरदायी कवि ने संकेतात्मक शैली में यह कहा था-" चार बॉंस चौबीस गज अँगुल अष्ट प्रमाण। ता पीछे सुल्तान है ना चूकय चौहान ।" यह भाषा का सकारात्मक प्रयोग है ।

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    1. आपका बहुत धन्यवाद पढ़ने के लिए और विशेषकर टिप्पणी करने के लिए ।
      वाकई जो प्रयोग चन्द कवि ने 'पृथ्वीराज रासो' में किया है उसका कोई जवाब नहीं है।

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  2. बहुत गहरा आब्जर्वेशन है. भारत जैसे विविधता भरे समाज में शब्दों को किसी खास राजनीतिक मकसद से अलाइनमेंट देना भयंकर टकराव की स्थिति पैदा कर सकता है. वैसे इस प्रक्रिया ने देश को गहरे जख्म दिये हैं, ये कालान्तर में भी साबित हुआ है.

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    1. भारत जैसा विवधता भरा समाज शाब्दिक षड्यंत्र में फंसने और फंसा लेने के लिहाज़ से सबसे ज्यादा नाजुक स्थिति में होता है। उदाहरणों की लम्बी श्रृंखला से सभी परिचित ही हैं।

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