Tuesday 3 December 2013

बन्द गली के पार !!

अनंत की झलक!      (-अपने कैमरे से खींची गई तस्वीर)

हाल ही में परीक्षा संबंधी कुछ शर्तों को पूरा करने के लिए मैं और मेरे कुछ मित्र दिल्ली के द्वारका इलाके में गए थे। वापसी के दौरान एक मित्र का फोन बजा। उसने हमसे कुछ दूर जाकर थोड़ी देर बात की। हमें उस बातचीत में से राममनोहर लोहिया अस्पताल, डॉक्टर, जान-पहचान जैसे कुछ शब्द सुनाई दिए। वह बातचीत खत्म कर लौटा तो इन शब्दों को सुनने के बाद मैंने उससे पूछ लिया कि क्या हुआ? सब ठीक तो है न!उसका जवाब था कि किसी ने आत्महत्या की कोशिश में छत से छलांग लगा दी है और अभी उसके तुरंत इलाज के लिए जान-पहचान की जरूरत है। आत्महत्या की स्थिति तक पहुंचने वाले लोगों के संबंध में मेरा मित्र कुछ अलग विचार रखता था, इसलिए उसने कायरताऔर बुजदिलीजैसे कुछ शब्दों में पूरे मसले को बांध दिया और यह वाकया महज चार-पांच मिनटों में आया-गया हो गया।

बहरहाल, आत्महत्या और इस मन:स्थिति तक पहुंचने वाले व्यक्ति की हालत मुझे देर तक उद्वेलित करती रही। सोचा तो लगा कि यह मोटे तौर पर दो कारणों से सामने आती है। पहली तब जब व्यक्ति यह देखता है कि वह चारों तरफ से बंधा हुआ है और उसके पास कहीं कोई अधिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में उसके मन में यह बात आसानी से आ जाती है कि खुद के जीने या मरने पर उसका अधिकार जरूर है, जिसका वह इस्तेमाल कर सकता है। इसके अलावा, एक स्थिति वह होती है जब दुख और तनाव के बीच पूरी तरह जकड़ा हुआ व्यक्ति अपने हालात से उबरने की सारी उम्मीद छोड़ कर यह तय मान लेता है कि अब कुछ संभव नहीं।तब अनजाने ही उसके कदम आत्महत्या की गलत दिशा में बढ़ सकते हैं।
निश्चय ही ऐसे कई कारण और भी हो सकते हैं, लेकिन दरअसल यह क्षणिक आवेश में उठाया गया एक कदम होता है। फिर भी क्षणिक आवेशमें फंस कर अपने जीवन को खत्म करने जैसा फैसला लेने का खयाल ही रूह को हिला कर रख देता है। अपने जीने या मरने का निर्णय कुछ क्षणों के हाथों में सौंप कर अपनी क्षमताओं को नकार देना सचमुच किसी विडंबना से कम नहीं। मैंने अपने एक अन्य मित्र से सुना कि न जाने लोग आत्महत्या कैसे कर लेते हैं, क्या उन्हें मरने से डर नहीं लगता! लेकिन सोचती हूं कि केवल मरने के डर के कारण जीना तो कोई जीना नहीं हुआ। जिंदगी जिंदादिली से भरपूर हो, जीने का सुख तभी है।
इस संदर्भ में मुझे अज्ञेय के उपन्यास शेखर: एक जीवनीकी जीवन, मृत्यु और डर संबंधी कुछ पक्तियां याद आती हैं, जहां बातचीत शेखर और उसकी बहन के बीच चलती है। शेखर जिज्ञासावश जानना चाहता है कि मरने से लोग क्यों डरते हैं; क्या मरना बहुत खराब होता है इसलिए? जवाब में उसकी बहन कहती है कि इसलिए नहीं डरते कि मरना बहुत खराब होता है, बल्कि इसलिए डरते हैं कि जीना अच्छा लगता है।अज्ञेय की यह पंक्ति जीवन जीने का नया नजरिया देती है। सच है कि परिस्थितियां व्यक्ति की दिशा निर्धारित करती हैं। लेकिन क्यों न कभी समूची ताकत लगा कर अपने हक में परिस्थितियों को निर्धारित किया जाए? आखिर तमाम उलझनों और परेशानियों के बीच जीवन से जूझते-लड़ते और एक हद तक उससे खेलते हुए पूरी रवानगी के साथ जीने का भी तो अपना मजा है! आत्महत्या तो सारी संभावनाओं को खत्म कर देती है, जिसमें न कुछ अच्छा हो सकता है, न रोमांचक।

जीवन को तय की हुई परिपाटियों पर नहीं जिया जा सकता। जिंदगी दरअसल अनिश्चितताका नाम है। रही समस्याएं तो उनका क्या! वे जैसे आती हैं, वैसे चली भी जाती हैं। बेहतर तो यही हो कि आत्महत्या जैसे कदम उठाने की जगह हालात बदलने के लिए कदम उठाए जाएं और इस बात को तो कोई नकार नहीं सकता कि ठान लेने के बाद कुछ भी असंभव नहीं। अपने ही जीवन के प्रति निरीह भाव रख कर अपना और जीवन दोनों का अपमान क्यों किया जाए भला और आत्महत्या जैसा कदम उठा कर किसी को मौका क्यों दिया जाए कि वह मरने वाले को कायर’, ‘बुजदिलया डरपोकजैसी उपाधियों से नवाजे। यह अलग बात है कि ऐसी उपाधियां देने वाले लोग आमतौर पर उस मन:स्थिति की जटिलता को समझ सकने की कोशिश नहीं करते हैं। हर परिस्थिति के बीच तमाम जद्दोजहद का सामना करते हुए जीना अक्सर जीवन की एक नई पटकथा तैयार कर देता है।

जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में 2 जून 2012 को प्रकाशित !

1 comment:

  1. गंभीर विषय था प्रीति. पढ़कर अच्छा लगा. लेकिन क्या आत्महत्या की वजहों को एक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाना चाहिये? मसलन कभी-कभी हताशा और निराशा के हालात पैदा किये जाते हैं. जिस समाज में अवसरों की असमानता की खाई हो, जन्म के साथ ही नत्थी हो जाने वाली परंपरागत पहचानों के आधार पर होने वाला पक्षपात हो, वहां किसी का इस हद तक निराश हो जाना स्वभाविक भी लगता है. जटिल और गूढ़ मनोवैज्ञानिक वजहें निस्संदेह आत्महत्या के पीछे काम करती हैं, लेकिन आज आत्महत्या के मामलों के पीछे राजनीतिक वजहें ज्यादा हैं.

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