निर्भया
बलात्कार कांड को एक साल पूरा हो गया है। भारत में महिला विमर्शों का रुख तय करने
के लिहाज से यह एक साल बहुत महत्वपूर्ण रहा है। न सिर्फ बलात्कार, बल्कि महिलाओं से जुड़े यौन हिंसा के हर
छोटे-बड़े मामले को केंद्र में रखकर चलायी गयी बहसों ने महिला विमर्शों के इतिहास
में एक सुनहरा अध्याय जोड़ा है, इसमें
शायद ही कोई संदेह है। मुख्य धारा मीडिया और वैकल्पिक जन दायरों ने बढ़-चढ़कर इन
बहसों में हिस्सा लिया और कहना होगा कि कई अवसरों पर निर्णायक रूप से अपना प्रभाव
भी छोड़ा। लेकिन इसके साथ-साथ बीते एक साल का महत्त्व इस बात में भी है कि इस दौरान
बलात्कार और यौन हिंसा से जुड़े विमर्शों ने एक खास तरह की भाषा का सृजन किया है।
यह भाषा कई अर्थों में खास है और इसके मूल्यांकन से महिला विमर्शों की दिशा और
उसकी राजनीति के बारे में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
देखा जाए तो बहस और विमर्शों के इस नये दौर
की शुरुआत का श्रेय 16 दिसंबर की घटना के बाद स्वतः स्फूर्त
ढंग से उमड़े जन आंदोलन को ही देना होगा। इसके बाद ही अचानक राजधानी दिल्ली और
तकरीबन पूरे देश में महिलाओं से जुड़े मसलों पर बहस तेज हुई। मुख्य धारा मीडिया
खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो महिलाओं से जुड़े यौन हिंसा के हर छोटे-बड़े मामले
को सामने लाने की होड़ दिखायी दी। यौन हिंसा से जुड़े सभी मामलों पर बातचीत के समय
उनसे जुडी भाषा में भी आश्चर्यजनक रूप से कई बदलाव देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही
यह बात भी उल्लेखनीय है कि इस तेजी और होड़ में वह संवेदना कहीं खोती गयी, जिसकी जरुरत ऐसे मामलों के प्रस्तुतीकरण
और बहस के दौरान होती है। लेकिन परेशानी की वजह सिर्फ यह नहीं है। वास्तविक मुद्दा
यह है कि आखिर तमाम विमर्शों ने इस घटना को एक ‘असामान्य’ घटना की तरह क्यों देखा? बार-बार बहसों और लिखित संवाद में यह
नजरिया ‘जघन्यतम अपराध’ ‘दुर्लभ मामला’ जैसे शब्दों के रूप में अभिव्यक्त होता
रहा। निस्संदेह, बलात्कार की यह घटना हिला देने वाली थी, लेकिन अपने आप में इस तरह की यह पहली
घटना नहीं थी। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ें बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन 50 बलात्कार के मामले पंजीकृत होते हैं।
यानि वस्तुस्थिति के अनुसार भारत में बलात्कार एक सामान्य घटना है।
दरअसल महिलाओं के प्रति बलात्कार और यौन
हिंसा न तो भारतीय समाज के लिये नई बात है और न विश्वव्यापी समाज के लिये, लेकिन जब किसी घटना को बेहद असामान्य
कहा जाता है, तो हम बहुधा उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारणों में नहीं
जाते। तब विमर्श एक सीमित दायरे में आगे बढ़ता है और उसी के भीतर समस्या का समाधान
तलाशने की कोशिश रहती है। जैसा कि सोलह दिसम्बर के मामले में हुआ, बहस का एक बड़ा हिस्सा कानूनी दायरे में
सिमट कर रह गया। साथ ही राज्य द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सुरक्षा का मसला अहम
हो गया। गौर से देखा जाये तो यह मांग अपने आप में गलत नहीं थी, लेकिन बलात्कार और यौन अपराधों के पीछे
कहीं ज्यादा गहरी और जटिल वजहें काम करती हैं, तदनुसार
उसका समाधान भी जटिल होता है। अमूमन केवल कानूनी दायरों के भीतर समस्या का समाधान
तलाशने के नजरिये से राज्य और शासक वर्ग को कई प्रतिक्रियावादी तरीकों को लागू
करने का भी अवसर मिल जाता है। क्या यह संयोग है कि आज एक साल बाद सरकार बाल
अपराधियों को भारतीय दंड संहिता की सामान्य धाराओं के तहत सजा देने की तैयारी कर
रही है? विमर्शों की कई धाराओं के स्वरों में
बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाओं को किसी स्थान विशेष की समस्या मान लेने का भाव
भी जाहिर हुआ। इसी का परिणाम था कि बलात्कार और महिलाओं के प्रति यौन हिंसा को
पहले ‘राजधानी दिल्ली’ तक केंद्रित कर देखा गया। ‘राजधानी दिल्ली महिलाओं के लिये
सुरक्षित नहीं’ और ‘अपराध की राजधानी दिल्ली’ जैसे
भाषाई संवादों का सार यही भाव था।
बलात्कार और यौन हिंसा को कहीं कम और कहीं
ज्यादा के पैमाने पर आंकने का यह नजरिया अंततः एक तरह का क्षेत्रीयकरण करता है।
इसी के आधार कुछ स्थानों और समाजों के बारे में ‘सुरक्षित’ या ‘असुरक्षित’ की छवि गढ़ी जाती है। कुछ महीनों पहले
मुम्बई में फोटो पत्रकार के साथ हुए मामले में ‘सेफ-अनसेफ सिटी’ के
पहलू पर जोरदार बहस हुई। हालांकि मुख्य धारा मीडिया में ‘सेफ या सुरक्षित’ मानी जाने वाली मुंबई इस घटना से पहले
कितनी सुरक्षित थी, इसका पता मुंबई में इसी साल अगस्त तक
दर्ज यौन हिंसा के मामलों से चलता है। इनमें 237
मामले बलात्कार के और आठ मामले सामूहिक बलात्कार के हैं। खुद फोटो पत्रकार का
बलात्कार करने वाली आरोपियों ने स्वीकार किया कि उसी स्थान पर चार और वारदातों को
अंजाम दे चुके हैं। स्पष्ट है कि मुंबई की सेफ या सुरक्षित छवि यौन हिंसा न होने
का पर्याय नहीं थी, लेकिन ‘सेफ-अनसेफ’ के इर्द-गिर्द चलाये गये विमर्शों ने
इस अंर्तविरोध को धुंधला कर दिया। वैसे क्षेत्रीयकरण के इसी तर्क की परिणीति एक
तरह की चयनात्मकता में भी होती है। इसी आधार पर बलात्कार और यौन हिंसा की किसी खास
घटना को उन्हीं परिस्थितियों में घटी किसी दूसरी घटना की तुलना में ज्यादा खतरनाक
मान लिया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा इससे वही सामाजिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह
जाहिर होते हैं, जिसके चलते निचले और वंचित तबकों की
महिलाओं के यौन हिंसा और बलात्कार के मामले सुर्खियां बनने से रह जाते हैं।
बीते एक साल में चले विमर्शों के एक हिस्से
ने यौन हिंसा और बलात्कार मामलों के आरोपियों को एक वर्गीय चेहरा देने की कोशिशें
भी की हैं। निर्भया सामूहिक बलात्कार घटना के बाद आरोपियों की सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर काफी बहस हुयी। इन बहसों की भाषा और रुख ने यह
स्थापित करने की कोशिश की कि यौन हिंसा को अंजाम देने वाले आरोपी निचले वर्ग से
होते हैं। संयोग से ठीक एक साल बाद दो ऐसे मामले सुर्ख़ियों में हैं, जो इस स्थापना की वास्तविकता बयान करते
हुए लग रहे हैं। पहला मामला समाज के बड़े हिस्से में धार्मिक गुरु के तौर पर नैतिक
वैधता प्राप्त आसाराम का है। इसी साल उनके खिलाफ 21 अगस्त को कमला मार्केट थाने में यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज हुआ है।
इधर हाल में ही में तरुण तेजपाल सुर्खियों में हैं जिन्हें तथाकथित सामाजिक मानदंडों
के अनुसार ‘आपराधिक’ अथवा ‘असामाजिक तत्वों’ में शामिल नहीं किया जा सकता था। उन पर
भी अपनी एक महिला सहकर्मी के साथ बलात्कार करने का कथित आरोप है। सुप्रीम कोर्ट के
पूर्व न्यायाधीश ए के गांगुली के आचरण को भी सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति अशोभनीय
बता चुकी है। तरुण तेजपाल और ए के गांगुली को तो समाज की बुद्धिजीवी जमात के
प्रतिनिधि के तौर पर देखा जाता है। इन दोनों मामलों से स्पष्ट हो जाता है कि
बलात्कार और यौन हिंसा को अंजाम देने वाला आरोपी किसी भी शक्ल में हो सकता है और
आरोपियों को वर्गीय चेहरा देने वाली स्थापना और भाषा एक अधूरी समझ पर आधारित है।
भाषायी स्तर पर महिला विमर्शों को अगर
बारीकी से देखा जाए तो यह बात देखी जा सकती है कि पिछले एक साल में इन विमर्शों ने
ऐसी भाषा का सृजन किया है जो अपने दूरगामी परिणामों में यौन हिंसा की घटनाओं से
कहीं ज्यादा खतरनाक साबित होगी जो न केवल अस्मिता पर चोट करेगी बल्कि अस्मिता के
प्रश्न को ही खत्म कर देगी। दरअसल यह भाषाई मूल्यांकन बताता है कि निर्भया
बलात्कार घटना, अप्रैल महीने में राजधानी में एक पांच
साल की बच्ची के साथ हुयी बलात्कार की घटना, सोनी
सोरी यौन उत्पीड़न मामला, जेएनयू की छात्रा पर कक्षा में घुस कर
किया गया शारीरिक हमला और ऐसी तमाम मामलों पर चलाये गये विमर्शों में एक निश्चित
नजरिये और सम्पूर्ण दृष्टि का अभाव रहा है। इस ढुलमुल नजरिये की अभिव्यक्ति एक ऐसी
भाषा और प्रतीकों के निर्माण के रूप में हुयी है जो न सिर्फ यौन हिंसा की बहस को
गति देने की बजाय बाधित कर रही है, बल्कि
कई मौकों पर उसे प्रतिगामी भी बना रही है। इस तरह महिलाओं के प्रति यौन हिंसा का
प्रश्न सभी पक्षों से बेहद गैर-संवेदनशील रवैये का शिकार हुआ है। निस्संदेह मुख्य
धारा मीडिया के विमर्श इसमें बड़ी भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन वैकल्पिक जन दायरों पर इस भाषा
की राजनीति को समझने की जिम्मेदारी है। अफसोस यह है कि इसको चुनौती देने के बजाय
यह वैकल्पिक माध्यम मुख्य धारा विमर्शों के प्रभाव में आ रहे हैं। परिणाम स्वरूप
बलात्कार और यौन हिंसा का विमर्श नाटकीयता का शिकार हो रहा है और राह भटक रहा है।
इस तरह की बनावटी कोशिशें न केवल उसकी गंभीरता को खत्म कर रही हैं बल्कि यौन हिंसा
की असल शक्ल और वजहों को छिपाने का भी काम कर रही हैं।
महिलाओं के प्रति होने यौन हिंसा पर चले विमर्शों की भाषा और उसकी राजनीति के अंर्तसंबंध की पड़ताल करता एक अच्छा लेख. वैसे भाषा और उसके जरिये रिफ्लेक्ट होने वाली राजनीति में संबंध विच्छेद की स्थिति होती नहीं है., फिर भी एक बार खुद को इस कसौटी पर भी परखना चाहिए ही...
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