Thursday, 8 May 2014

हल्केपन से भरी - गंभीरता !



(गूगल-तस्वीरों के भंडार से )

मुझे नहीं पता कि यह बहुत गंभीर बात है या नहीं, पर हाँ इतना पता है कि बात सोचने पर मजबूर ज़रूर करती है. मेरे लिए यह सवाल तब खड़ा होता है जब मेरे कानों में किसी बड़े विद्वान की किसी गहन सोच विचार के बाद कही किसी गंभीर बात के अंत में यह आवाज़ भी सुनाई देती है कि, ‘चलिए बहुत हुई गंभीर बातें अब थोड़ा माहौल को हल्का किया जाए.’ आजकल गोष्ठियों, आयोजनों, अखबारों, समाचार चैनलों में बात को ‘हल्का’ कर देने की कोशिश साफ़ नज़र आती है. एक उदाहरण के तौर पर इसको साफ़-साफ़ तब भी देखा जा सकता है जब प्राइम टाइम पर बोलते बेहद जिम्मेदार दिखने वाले एंकर यह कह कर खुश होते हैं कि ‘चलिए बहुत गंभीर बातचीत हो गई अब माहौल को हल्का करने के लिए देखते हैं थोड़ा ये और थोड़ा वो.’


सोचने
वाली बात है, ऐसा क्यों है कि हमने सोच-विचार की परतों में जिम्मेदार और गैर-जिम्मेदाराना दो खांचें बना दिए हैं? ऐसा क्यों है कि बातचीत के मध्य ही ‘गंभीर’ और ‘हल्की’ दो अलग श्रेणियाँ बना दी गई हैं? क्या सहज बातचीत में दिखाई देने वाली दो ‘श्रेणियाँ’ जिम्मेदारियों से एक खास तरह की शातिर दूरी बनाए रखने की रणनीति की ओर इशारा नहीं करतीं? क्या ऐसा नहीं है कि बौद्धिकता का झूठा अहम पाले हुए हम एक ओर गंभीरता का ढकोसला/रिवाज भी पूरा कर लेना चाहते हैं और साथ ही उस रिवाज के साइड इफेक्ट यानी कि परिणामस्वरूप पैदा होने वाले स्ट्रेस/तनाव से भी मुक्त रहना चाहते हैं? यहाँ दायित्त्व बोध जितने तेवर के साथ आता है उतनी ही तेजी से वह दूसरे रास्ते से चला भी जाता है जब बहस समाप्ति की ओर बढती है. चौंकाने वाली बात यह कि बात को हल्का करने वाला व्यक्ति इस बात का श्रेय भी बढ़चढ कर लेता है कि वह ‘माहौल’ की गरिमा को बनाए रख रहा है और केवल उसी के कारण कोई ‘अनहोनी’ (जो संभवतः अस्तित्वहीन होती है!) टल जाती है.


बात
केवल इतनी ही नहीं है. दरअसल बात को हल्का करके मुस्करा लेना केवल व्यक्तिगत दोहरेपन तक सीमित नहीं है बल्कि यह बहुत दूर तक जाने वाला सवाल है. मेरी नज़र में यह अनजाने में होने वाली क्रिया बिल्कुल नहीं है. इसे जानबूझ कर किया जाता है और बेहद चालाकी से किया जाता है. वाग्जाल को हथियार बना कर मुद्दे को गुमराह करना शायद इस प्रवृत्ति के मुकाबले बहुत छोटी चीज़ है. वाग्जाल में गुमराह हुआ मुद्दा सूझबूझ की बदौलत वापस केन्द्र में लाया जा सकता है पर ठीक वहीं गंभीर विमर्श को हल्का कर देने वाली स्थिति इतनी सहज नहीं जान पड़ती. ऐसा इसलिए क्योंकि इस स्थिति में गंभीर विषय को हल्का कर देने के साथ माहौल को केवल हल्का ही नहीं किया जाता बल्कि बहुत बारीकी से उसकी गंभीरता को भी खत्म कर दिया जाता है.


सवाल
यह भी है कि आखिर यह ‘माहौल’ क्या है जिसे हल्का किया जा रहा है? इस ‘माहौल’ को हल्का बनाए रखने की ज़रूरत क्यों है? दरअसल माहौल को गंभीर बना कर फिर उसे हल्का करना एक खास तरह की आदत बनती जा रही है जिसके जरिए न केवल एक विषय या विचार के स्तर पर गंभीरता को खत्म किया जा रहा है बल्कि साथ ही गंभीर चिंतन की पूरी प्रणाली को ही जड़ से उखाड़ा जा रहा है. सम्भवतः गंभीरता से दूरी बनाने वाला वर्ग निश्चिन्तता का पक्षधर है. वह निश्चिन्त रहना चाहता है और कतई यह नहीं चाहता कि गंभीरता उसके चेहरे पर तनिक भी शिकन लाए. वह नहीं जानता कि जिसे वह निश्चिन्त होना कहता है वह वास्तव में स्थितियों से अनजान बने रहना कहा जाता है. इसके ठीक विपरीत गंभीरता को समाज से दूर रखने वाला वर्ग यह नहीं चाहता कि व्यक्ति या व्यक्ति समूह की चिंतनशक्ति उसे समस्याओं के समाधान तक पहुँचाने में सफल हो. एक बड़ा बाज़ार और राजनीति सामान्य व्यक्ति को सामान्य बनाए रखना चाहते हैं ताकि उनपर आसानी से अपनी सोच, अपना सामान और अपने सुझाव थोपे जा सके. इसलिए माहौल को हल्का बनाए रखना उसकी ज़रूरत है क्योंकि वह जानता है कि गंभीर माहौल के गंभीर बने रहने में ही उसकी सफलता और समाधान छिपे होते हैं.

यहाँ
प्रश्न किसी विषय या विचार के सम्पूर्ण अस्तित्व का है. यदि विषय अपने स्वभाव में गंभीर है तो उसका ट्रीटमेंट उसी स्तर पर किया जाना ही उसके साथ न्याय करना होगा. यहाँ न तो उसे अति गंभीर बनाना है और न ही गंभीर होने से बचाना है. विषय के बीच उसे हल्का बनाने की कोशिश विषय को पूरी तरह निष्प्राण करने की प्रक्रिया है. बात को हल्का कर देना पूरी तरह से गैर विकासशील नज़रिया है.


2 comments:

  1. मेरे लिए आपकी अब तक की लिखी हुयी टिप्पणियों में सबसे अच्छी टिप्पणी..बहुत बधाई..

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  2. After reading the whole articles or better to say “observation” I also have few points in my mind which I want to share.
    For a large audience who watch “Prime Time” show, they neither bother nor care about what is last resolution. In fact they are more engage in analyzing the host and his attitude.
    The host also takes care of guests as an analyst and as political party and always provide some room to take deep breath because “Prime Time” is not one day show, every day they need same kind of faces. -- दाल रोटी भी तो कमनी है
    We have also made some changes with span of time and started using words “malnutrition” more instead of भूख, कूपोषण . I don’t know whether my observation is correct or not but certainly I believe that in country like India where speaking English is prestigious ability, the words like “malnutrition” dilutes the impact of कूपोषण in real sense.
    आख़िरी मे - चलिए बहुत हुई गंभीर बातें अब थोड़ा माहौल को हल्का किया जाए.’ - thanks for observing the facts and giving words to them

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