Saturday, 22 July 2017

चलो, बराबरी का खेल खेलते हैं !

photo credit- Hindustan Times
मुबारक हो! भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने वर्ल्ड कप में ऑस्ट्रेलियाई टीम को हरा दिया और फाइनल में पहुँच गई। जश्न की बात है। जश्न होना भी चाहिए। लेकिन भारतीय महिला टीम पहले भी लगातार कई मैच जीती है, फाइनल में भी पहुँची है। पहले तो ऐसा ना हुआ। इस बार जश्न अलग - सा है। दरअसल भारतीय क्रिकेट अभी उस बड़े सदमे से उबरा नहीं है जब पाकिस्तान ने भारत को बुरी तरह हरा दिया। और इसके साथ ही ‘मौका - मौका’ की रट लगाए पाकिस्तानियों को चिढ़ाने की ताक में बैठे लोगों का ‘मौका’ उनसे छिन गया। अगर ठीक-ठीक याद हो तो अचानक उसी दिन लोगों ने पुरुष हॉकी को एक रात के लिए गोद ले लिया था क्योंकि उसने उसी दिन पाकिस्तान को हराया था, वरना हॉकी टीम की जीत एक हेडलाइन से ज्यादा क्या जगह बनाती भला..!

ठीक यही वो समय था जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की महिला टीम को हरा दिया और ‘मौका मौका’ वालों को अपनी साध पूरी करने का मौका कहीं और से मिल गया। खेल शानदार था, वाकई लाजवाब! लेकिन लोग उसे बड़े पैमाने पर क्यों देख रहे थे? क्या इसलिए क्योंकि भारतीय प्रशंसक महिला क्रिकेट टीम के सारे मैच देखते और फॉलो करते रहे हैं..?? या फिर इसलिए क्योंकि उनके अन्दर की कुंठा को बाहर निकलने के लिए एक संकरी गली मिल गई थी वरना कहाँ लोगों को मिताली राज के अलावा एक महिला खिलाड़ी का नाम भी मालूम था..! भूलिए नहीं कि ये उसी समाज की बात है जहाँ कोई रिपोर्टर पुरुष खिलाड़ी से उसकी पसंदीदा महिला खिलाड़ी का नाम नहीं पूछता लेकिन महिला खिलाड़ी से पूछ लेता है। मिताली राज ने इस सवाल का जो जवाब दिया वो किसी चिढ़ से उपजा जवाब नहीं, बल्कि एक कड़वा सच है! आप सामान्य जनता से तो क्या बड़े खिलाड़ियों से ही पांच महिला क्रिकेटरों के नाम पूछ के देख लीजिए, अगर मिल जाएँ जवाब तो तालियाँ बजा लीजियेगा !

साक्षी मलिक, पीवी सिंधू  (PC- TOI)
बहरहाल, तो इस तरह महिला खिलाड़ियों ने भारतीय समाज को उबार लिया, हाँ ठीक वैसे ही जैसे रियो ओलम्पिक्स में हमारे भीतर बैठे एक ‘गोल्ड’ की चाह को लड़कियों के ‘कांस्य’ व ‘सिल्वर’ ने उबार लिया था और पूरी मीडिया व सामाजिक जन दायरे बुरी तरह नाच उठे थे। अचानक इतना शोर शराबा हुआ जैसे इस देश के कोने कोने से अब साक्षी मलिक और पीवी सिंधू पैदा हो जाएँगी, जैसे अब तो दुनिया का नजरिया बदल ही गया समझो, अचानक पहलवानी और बैडमिंटन तो छा ही गए जैसे..! लेकिन वो सब हो - हल्ला तब तक ही चला जब तक फिर से क्रिकेट (पुरुष) हावी नहीं हो गया। और फिर वही ढाक के तीन पात..

अब महिला क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान को हरा दिया.. समझ रहे हैं ना आप.. पाकिस्तान को.. वो भी तब जब पुरुष टीम नहीं हरा पाई.. तो इस बार तो मामला लम्बा चलना ही था..!

यह कहना गलत होगा कि पूरे देश की निगाहें इस वर्ल्ड कप में महिलाओं के खेल पर टिकी हैं दरअसल हर बार की तरह इस बार भी अन्त तक आते - आते बची खुची उम्मीदों की झोली को महिलाओं पर लाद कर एक उन पर अनावश्यक दबाव बनाया जा रहा है। ऐसे ही हालातों में खेल ‘खेल’ नहीं रह जाता। हम उस ओर उम्मीदों से नहीं देखते अगर पुरुष टीम का पाकिस्तान के खिलाफ वो हश्र ना हुआ होता।

जब आसपास हवा बयार एकदम से बदल जाए तो उसपर शक किया जाना चाहिए! मसलन ओलंपिक जैसे स्तर पर दीपा कर्माकर को फिजियो मुहैया ना करवा पाने वाले देश का उसके आखिर तक पहुँचते ही पदक के लिए आँखें गड़ा के देखने लगना, जैसे साक्षी मलिक के काँस्य पदक जीतने के तुरन्त बाद ‘सुल्तान’ का नारा लगना और उससे पहले नाम से भी नावाकिफ होना, और पी वी सिंधू के रजत जीतने के बाद देश की बेटियाँ’  जैसे नारे लगा देना

वैकल्पिक मीडिया हैशटैग से भरभरा उठता है। #बेटी_बचाओ, #आखिर_में_बेटियाँ_ही_काम_आईं_बेटे_नहीं, #देश_की_बेटियाँ आदि पर सिलसिला भावुकता में हैशटैग चलाने जितना सीधा नहीं था। उस दौरान भी तात्कालिक माहौल को देखते हुए वैकल्पिक मीडिया पूरे जोश में लड़कों के खिलाफ चढ़ गया था मामला भावुकता का लगता भले ही हो पर है नहीं पी वी सिंधू ने स्पेन की केरोलिना मरीन को हराया था, ली चॉन्ग वे (नम्बर एक खिलाड़ी- पुरुष वर्ग) को नहीं  अगर इस बात को समझ जाएँ तो आसान होगा ये समझना भी कि मुकाबला स्त्री बनाम पुरुष का ना तो खेलों में है, ना ही जीवन और समाज में फिर लड़कियों की जीत का इस्तेमाल लड़कों को नीचा दिखाने के लिए क्यों किया गया दरअसल इस तरह के इस्तेमाल तात्कालिक जुमले से ज्यादा कुछ नहीं होते जिनका काम बहस की नींव को ही कमज़ोर करना होता है

साक्षी मलिक को वापस आते ही बेटी बचाओ कैम्पेन का एंबेसडर बना दिया और बहस वहीं खत्म हो गई! वो भी घोर महिला विरोधी बयान देने वाले खट्टर साहब ने इस काम को अपने हाथों अंजाम दिया, और इस तरह किसी भी बहस की गुंजाइश ही खत्म हो गई

मुख्यधारा मीडिया ने बेटियों की आज़ादी की दुहाई देते हुए बहस को उसी पुरानी दिशा में मोड़ दिया कि अब बेटी को चूल्हे चौके से निकालना होगा..? साक्षी को देखिये, सिंधू को देखिये! अब कह रहे हैं हरमनप्रीत को देखिए, मिताली राज को देखिए! समाज में सिर्फ नाम बदल रहे हैं लेकिन असल मसला वहीं है। क्या आधुनिकता और स्त्री स्वतंत्रता का सम्बन्ध चूल्हा चौका बहिष्कार से है..? यानी चूल्हा चौका एक कमतर काम है इसीलिए उसे करने वालों को कमतर समझा जाता है। क्या यह समझना बहुत मुश्किल है कि ऑफिस - दफ्तर, बाहरी खेलकूद और चूल्हा - चौका,  झाड़ू - पोंछा एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं।

सामान साझेदारी की बात करने की बजाय घरेलू और बाहरी को दो विपरीत धड़ों में बाँट देना निरी मूर्खता है।  इसी तरह जब लड़का लड़की एक समानको बुलंद नहीं कर पाते तो लड़कियां लड़कों से बेहतर क्यों और कैसे हैं गिनवाने लगते हैं  और ऐसा करते हुए उन्हें साथ नहीं बल्कि आमने - सामने खड़ा कर देते हैं  टक्कर के बाद ‘कौन - किससे बेहतर है?’ का फैसला करना दिलचस्प ज़रूर लगता है पर आने वाले समय में यह भयावह स्थितियों को जन्म देगा लड़की अगर विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को सिद्ध ना पाई तो.? क्या उसे वह सम्मान नहीं मिलना चाहिए जो रजत या स्वर्ण पदक जीतने वाली लड़की को मिलता हैउससे भी बढ़कर अगर ऐसा समाज आ जाए जिसमें हर लड़की जीत जाए और लड़के हार जाएँ तो क्या लड़कों से सम्मान की ज़िंदगी छीन ली जानी चाहिए! ओलपिंक में ही अगर भारत के दस लड़के पदक जीत लेते तो बेटी को बचाने की ये हालिया दलील किस करवट बैठती !!

कर्णम मल्लेश्वरी (PC- BharatKosh)
आशावादी समूहों का यह भी तर्क है कि बदलाव धीरे धीरे आते हैं और बेटियों की जीत समाज में उनकी दावेदारी की पैठ शुरू करेगी क्या वाकई ? सवाल यह है कि सवा सौ करोड़ वाला यह देश कब तक दावेदारी के पहले ही चरण पर जीत के जरिए पैठ बनाने की दुहाई देता रहेगा अगर वाकई महिला द्वारा पदक जीतना इतना बड़ा मसला था तो सिडनी ओलम्पिक को कैसे भूला जा सकता है! कर्णम मल्लेश्वरी एकमात्र पदक विजेता थीं  स्त्री - पुरुष का मसला ही खत्म! अधिकारों की माँग को इस तरह से देखना बन्द करना होगा

हमारे खेल और खिलाड़ी गहरे कहीं नस्लवाद के मारे हैं और दिशाविहीन हुए हम कहीं भी डोल जाते हैं। अगर हम ये कहते हैं कि लड़कियाँ मैडल जीत रही हैं इसलिए इन्हें जीने का अधिकार मिलना चाहिए तो ये कुछ उसी तरह का तर्क है जिसका इस्तेमाल कन्या भ्रूण हत्या करने वाले यह कहकर करते हैं कि लड़कियाँ सम्पति की वारिस नहीं बनती क्योंकि उन्हें ब्याह कर दूसरे घर जाना पड़ता है इसलिए उन्हें जीने का अधिकार नहीं है सोचना होगा कि कुतर्कों का जवाब देने की जल्दबाजी में उन्हें आसान रास्ते मुहैया करवाए जा रहे हैं जबकि ज़रूरत कुतर्कों को रोकने और ठोस रास्ते पर चलने की है। अंत चाहे जैसा भी हो! महिला क्रिकेट को सराहने की ज़रूरत है। सही वजहों से और सही दिशा में। वरना जितना तेजी से हल्ला होगा और उतनी ही तेजी से शांत हो जाएगा।

महिला क्रिकेट सुर्ख़ियों में आते ही तुलनात्मक फेर में फंस गया । यह तुलना अपने स्वरूप में कहीं ज्यादा नुकसानदेह है । जहाँ उन्होंने अच्छा खेला वहाँ उनकी तुलना पुरुष टीम से कर दी गई और किसी को किसी से कम और ज्यादा घोषित कर दिया । एकता बिष्ट को अश्विन और जड़ेजा से बेहतर बता दिया। हरमनप्रीत कौर और विराट कोहली की तुलना शुरू कर दी। रातों रात मंदना के बैटिंग स्टाइल का हमनाम ढूँढना शुरू कर दिया। यह सब कितना ज़रूरी.. और कितना जायज़ है !! एक ऐसे समय में जब लड़कियाँ अपनी शक्ल और अपना स्टाइल खेलने के लिए संघर्षरत हैं उस समय में उन पर तुलनाओं का अनावश्यक बोझ डालना ठीक वैसा ही जैसे क्लास के औसत छात्रों की प्रतिभा को फर्स्ट आने वाले की दौड़ से मिला कर कत्ल कर देना!!


बुनियादी सवाल आज भी समझदारी का हैहम खेलों के प्रति क्या दृष्टि रखते हैंहम समाज में स्त्री पुरुष की मौजूदगी पर क्या दृष्टि रखते हैं और यह भी कि समाज में जीने का हक़ किसे है और किसे नहीं के प्रश्न पर किन तर्कों का इस्तेमाल करते हैं। सराहिये इसलिए क्योंकि उन्हें भी एक लम्बी यात्रा तय करनी है, इसलिए क्योंकि मजबूती से खेलने का हौसला रातों - रात नहीं आता, इसलिए क्योंकि तुलनाएं गैर ज़रूरी हैं, कक्षाओं में भी, खेलों में भी, खिलाड़ियों में भी..!

Tuesday, 25 April 2017

फुहार - पुरानी दिल्ली सीरीज

पुरानी दिल्ली के चक्कर (1)

पहले आपके लिए यह तय करना ज़रूरी है कि आप देसी आभास किसे मानते हैं? अक्सर चांदनी चौक घूमने गए लोग मेट्रो से निकल कर सुविधाजनक रास्ता पकड़ मैकडोनाल्ड, बीकानेरहाउस और हल्दीराम्’स में बैठ जाते हैं और लौट कर कहते हैं कि उन्होंने चांदनी चौक देखा
बड़ा ही कंजस्टेड है हाउ लो-क्लास!

अगर चांदनी चौक घूमना है तो पहले अपने पर्स और मोबाइल को अपने बैग में गहरे दबा दीजिए ताकि ‘साफ़’ ना हो जाए और फिर उतर जाईये भीड़ में.. चलने का हौसला रखिए क्योंकि हर जगह पलट कर सेल्फि खींचने का मौका यहाँ आसानी से नहीं मिलता.. फिर देखिये गली गली और मोहल्ला..

तस्वीर - शुभम गुप्ता पुरवार

यहाँ आज भी आँगन वाले घर हैं.. खिड़की आज भी वो मजबूत तख़्त वाली लकड़ियों से बनी हैं जिन्हें आज के बच्चे हाथ लगा कर खोलने में हांफ जाते हैं.. ‘खट खट खट’ कर लगने वाले ट्रिपल सिक्योरिटी वाले ताले यहीं मार्केट में तो बिकते हैं पर नज़र उठा के देखिये वहाँ किसी घर में ये ताले लगे हुए नहीं दिखेंगे। वहाँ आपको दिखेंगे बड़े किवाड़। आप सोच रहे होंगे कि अब दरवाजों को ‘किवाड़’ कौन बोलता है? दस पन्द्रह घरों के आगे से गुजरिये.. ये ‘किवाड़’ शब्द आपको सुनाई दे जाएगा।

हर गली से गुजरते हुए चाय के अड्डे मिलेंगे। उबलती हुई चाय की खुशबू जब आप महसूस करेंगे तो याद आएगी ढाई सौ रूपये वाली मॉल वाली चाय, कॉफी और यह भी याद आएगा कि कितना ठगा है दुनिया ने आपको !!

हर गली में दाखिल होने से पहले आसपास दिख रहे भाईबंधु से पूछिए कि यह गली कहाँ निकलती है ? तब आपको एह्साह होगा कि एक गली चावड़ी बाज़ार निकलती है तो एक गली बल्लीमारान से दरीबे तक ले जाती है, तो एक सीधा दरिया गंज के फाटक तक पहुँचा देती है । कोई जामा मस्जिद तो कोई चितली कब्र का रुख करती है । आज जहाँ आप धौला कुआं के फ्लाईओवर पर एक गलत टर्न लेते ही डेढ़ घंटे का नुकसान करवा लेते हैं वहाँ ये गलियाँ गलत रुख लेने पर भी कहीं ना कहीं से जोड़ कर आपको मंजिल तक पहुँचा देती हैं।
तस्वीर - एहतिशाम अली सिद्दीकी
..और आपने उन लड़कियों का ज़िक्र तो सुना होगा तो गोलगप्पे खाने के बाद पानी और सौंठ मांगने के लिए बदनाम कर दी गईं हैं, आप एक बार चांदनी चौक का रुख कीजिये.. यहाँ चटपटी कचौरी के साथ दही मांगते लड़कों की लाइन जब देखेंगे तो उन लड़कियों को और उन पर बनने वाले सोशल मीडिया टाइप जोक्स को भूल जाएंगे.. यहाँ लड़के अभी तक ‘डूड’ नहीं हुए हैं जिन्हें दही और सौंठ मांगने में शर्म आती है.. वे बेहिचक बोलते हैं, “यार और दे ना यार, हम लड़की नहीं हैं तो हमें नहीं देगा क्या..? देख कंजूसी मत करियो..” 

देखना है चांदनी चौक तो पैदल चलिए थोड़ा, कष्ट दीजिए खुद को, वरना इंतज़ार कीजिये किसी ‘दिल्ली 6’ टाइप फिल्म का जो दावा करे कि उसमें ‘रियल दिल्ली’ देखने को मिलेगी। ‘रियल दिल्ली’ कैसी है सोच कर मत जाइए! जाना है तो तुरन्त जाइये, इससे पहले कि वहाँ की ‘पाव-भाजी’ वाली रेडी पर भी ‘मोमोज’ बिकने लगें! जानते हैं ना, समय तेज़ी से बदल रहा है! 

Wednesday, 19 April 2017

ऊँची तोर अटारी, मैंने पंख लिए कटवाए

एक खास जगह पर बैठ कर चाँद को देखना.. और फिर इस तरह देखना कि उसके दिखने की दिशा को बदलते हुए देखना.. ‘धीरे - धीरे चल चाँद गगन में’ जैसे गाने को गाना और फिर मुस्कुरा कर खुद से कहना कि गाना रोमांटिसिज़्म में लिखा गया है.. चाँद धीरे ही चलता है.. चाँद का चलना पृथ्वी के चलने की तुलना में कम है.. इसलिए चाँद पर इलज़ाम ठीक नहीं..!  और फिर यह भी सोच लेना कि हर जगह ज्यादा दिमाग लगाना भी अच्छा नहीं..! फिर ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिलें तो वीराने में भी आ जाएगी बहार’ को ढूँढ कर निकालना और कई बार सुनना.. ‘आधा है चंद्रमा रात आधी, रह ना जाए तेरी मेरी बात आधी’ को सुन कर खुश हो लेना.. और उसके बाद ‘चाँद फिर निकला मगर तुम ना आए’ बजा कर रात के होने, गहराने और बीतने को महसूस करना.. ये कई कई बार दोहराई जाने वाली गतिविधि है.. या कहूँ कि बहुत सारी गतिविधियों में से एक है.. कुछ खास आदतों में शुमार.. ये कुछ उन खास आदतों में शुमार है जिन्हें बदलने का ख्याल कभी आया ही नहीं.. वक्त धीरे धीरे कुछ आदतें डालता है.. और लेकिन फिर बहुत चुपचाप उन्हें बदलने को मजबूर कर देता है.. 


तकरीबन एक से डेढ़ साल बाद घर लौटना मुक्कमल हुआ.. पिछले दिनों भी चाँद वैसा ही लगा लेकिन हमारे दरम्यान कुछ ज़रा सा बदला हुआ था.. नहीं! चाँद नहीं.. शायद हमारी बातचीत.. शायद फ़िल्मी अंदाज़ में बजने वाले वो शौकिया गाने.. शायद वो गानों को क्रम से बजाने का उत्साह.. और चाँद से होने वाली बातचीत की लय.. उसकी और मेरी भाषा.. उसमें मिली हुई हँसी..  उस ‘ज़रा से’ बदलने में जाने क्या क्या शामिल हो गया..!