Tuesday, 21 June 2016

कसम ली – बाई गॉड सीरियसली!

आजकल मेरी स्पीड पर स्पीड ब्रेकर लगा रहता है| यूँ भी ज्यादा तेज़ी से चलने की मुझे आदत नहीं| एक वजह यह भी है कि ज्यादा तेज़ी से चल ही नहीं पाती तो चलूंगी कैसे..! बहरहाल, मुझे वैसे भी ज्यादा ‘मदद’ की ज़रूरत नहीं पड़ती .. पर लोग ‘बाग़’ मदद करते रहते हैं समय - समय पर .. कभी - कभी मदद ले लेने में भी कोई बुराई नहीं है|

खैर, फिलहाल मसला ये है कि हाल फिलहाल में हम हॉस्पिटल से घर के लिए निकले| (‘हम’ यानी मैं, यहाँ एकवचन लगाने का मन नहीं है!) आम तौर पर ऑटो लेना आदत हो गई है| शुरुआत में कैब लेना होता था पर कैब कभी जंचा नहीं| इसलिए सिर्फ ऑटो का ऑप्शन बचा| जेब में देखा तो पता चला कि ऑटो के लायक पैसे नहीं हैं| सोचा अपना मेट्रो जिंदाबाद| चलने में लंगड़ाहट अभी बाकी है| सो धीरे - धीरे चलना शुरू किया|

मेट्रो तक चल कर जाना .. फिर सीढ़ियाँ ... उफ्फ .. साथ में एक जनाब बातचीत में थे.. हमने भी सोचा कि सफर में लोग मिलते रहें तो कारवां बनता है| हमने बनने दिया कारवां| फिर कुछ कदम पर एक और जनाब साथ हो लिए.. हमने स्टार वाली फीलिंग को झट से ले लिया| हम तीनों साथ में मेट्रो स्टेशन तक गए| मैं और साथ में दो लोग| अब सीढ़ियाँ उतरने की बारी थी|