Monday 8 September 2014

'मैरी कॉम' के बहाने

हिन्दी सिनेमा ने अपने पिछले सौ सालों में बहुत कहानियाँ कही हैं पर तथ्यात्मक ढंग से जीवनी आधारित कहानी कहने का अनुभव हिन्दी सिनेमा को कम है. सीधे-सीधे कहा जाए तो यह कि बायोपिक बनाने का अभ्यास कम है. ‘बायोपिक’ यानी कि बायोग्राफिकल फिल्म या जीवनी आधारित फिल्म.
'The making of Mahatma'

यह ज़रूर है कि किसी एक व्यक्ति विशेष की जिन्दगी को केंद्र में रखकर कहानी कहने-सुनाने का चलन यहाँ पुराना है. एक उदाहरण से देखें तो मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन को केंद्र में रखकर कई तरह की फिल्में लगातार बनाई गईं. जिनमें एक खास तरह की फिल्में वह थीं जिनमें उनकी जिन्दगी के कुछ पहलुओं की तथ्यात्मकता को बनाते हुए सीधे-सीधे उनके जीवन के बारे में कुछ कहा जा रहा था, वहीं कुछ फिल्मों में उनके इर्द-गिर्द कहानी बुनकर कुछ नया कहने की कोशिश की गई. मसलन श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ या ‘गांधी से महात्मा तक’ (
1996) जैसी बायोग्राफिकल फिल्म जिसमें गाँधी और उनके जीवनानुभव को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया वहीं फिरोज अब्बास खान के निर्देशन में ‘गाँधी माई फादर’ (2007) जैसी फिल्म भी बनाई गई जो विचारधारा के स्तर पर नए आयामों को छूती है, और ठीक इसके विपरीत ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) जैसी फिल्म भी आती है जिसमें कहानी में नए संदर्भ पिरोने के लिए गाँधी और उनके विचारों का सहारा लिया गया.